Saturday, November 14, 2009

कौन लिख रहा है इन नौनिहालों की तकदीर

अगर वास्तव में बच्चे किसी देश का भविष्य है तो भारत का भविष्य अंधकारमय है। भविष्य का भारत अनपढ़, दुर्बल और लाचार है। कोई भी इनका अपहरण, अंग-भंग, यौन शोषण कर सकता है और बंधुआ बना सकता है।हर साल बच्चों के प्रिय चाचा जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। बच्चों के लिए कार्यक्रम आयोजित किए जाते है। बड़ी-बड़ी बातें की जाती है, लेकिन साल-दर-साल उनकी स्थिति बद से बदतर होती जा रही है।

भारत में बाल-मजदूरी पर प्रतिबंध लगे 23 साल हो गए है, लेकिन विश्व में सबसे ज्यादा बाल मजदूर यहीं हैं। इनकी संख्या करीब छह करोड़ है। खदानों, कारखानों, चाय बागानों, होटलों, ढाबों, दुकानों आदि हर जगह इन्हें कमरतोड़ मेहनत करते हुए देखा जा सकता है। कच्ची उम्र में काम के बोझ ने इनके चेहरे से मासूमियत नोंच ली है। इनमें से अधिकतर बच्चे शिक्षा से दूर खतरनाक और विपरीत स्थितियों में काम कर रहे है। उन्हें हिंसा और शोषण का सामना करना पड़ता है। इनमें से कई तो मानसिक बीमारियों के भी शिकार हो जाते हैं। बचपन खो करके भी इन्हे ढग से मजदूरी नहीं मिलती।

भारत में अशिक्षा, बेरोजगारी और असंतुलित विकास के कारण बच्चों से उनका बचपन छीनकर काम की भट्ठी में झोंक दिया जाता है। इसलिए जब तक इन समस्याओं का हल नहीं किया जाएगा, तब तक बाल श्रम को रोकना असंभव है। ऐसा प्रावधान होना चाहिए कि सभी बच्चों को मुफ्त और बेहतर शिक्षा मिल सके। हर परिवार को कम से कम रोजगार, भोजन और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हों। साथ ही बाल-मजदूरी से जुड़े सभी कानून और सामाजिक-कल्याण की योजनाएं कारगर ढंग से लागू हों।

देश में बच्चों के स्वास्थ्य की स्थिति भी बेहद चिंताजनक है। ब्रिटेन की एक संस्था के सर्वे के अनुसार पूरी दुनिया में जितने कुपोषित बच्चे हैं, उनकी एक तिहाई संख्या भारत में है। यहा तीन साल तक के कम से कम 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इसके अलावा प्रतिदिन औसतन 6,000 बच्चों की मौत होती है। इनमें 2,000 से लेकर 3,000 बच्चों की मौत कुपोषण के कारण होती है। भारत में बच्चों का गायब होना भी एक बड़ी समस्या है। इनमें से अधिकतर बच्चों को संगठित गिरोहों द्वारा चुराया जाता है। ये गिरोह इन मासूमों से भीख मंगवाते हैं। अब तो मासूम बच्चों से छोटे-मोटे अपराध भी कराए जाने लगे है। पिछले एक साल में दिल्ली मे दो हजार से ज्यादा बच्चे गायब हुए। इन्हें कभी तलाश ही नहीं किया गया, क्योंकि ये सभी बच्चे बेहद गरीब घरों के थे।

यह स्थिति तो देश की राजधानी दिल्ली की है। पूरे देश की क्या स्थिति होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अगर गायब होने वाला बच्चा समृद्ध परिवार का होता है तो शासन और प्रशासन में ऊपर से लेकर नीचे तक हड़कंप मच जाता है। यदि बच्चा गरीब घर से ताल्लुक रखता है तो पुलिस रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करती। पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई थी कि वह सिर्फ अमीरों के बच्चों को तलाशने में तत्परता दिखाती है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार 80 प्रतिशत पुलिस वाले गुमशुदा बच्चों की तलाश में रुचि नहीं लेते। भारत में हर साल लगभग 45 हजार बच्चे गायब होते हैं और इनमें से 11 हजार बच्चे कभी नहीं मिलते। संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव में 2007 मे भारत में बाल अधिकार संरक्षण आयोग गठित किया गया था। आयोग ने गुमशुदा बच्चों के मामले मे राच्य सरकारों को कई सुझाव और निर्देश दिए थे। इनमें से एक गुम होने वाले हर बच्चे की एफआईआर तुरंत दर्ज किए जाने के संदर्भ में था, लेकिन सच्चाई सबके सामने है।

बाल विवाह एक और बड़ी समस्या है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में जिन लड़कियों की बचपन में शादी कर दी जाती है, उनमें एक तिहाई से भी ज्यादा भारत से हैं। सालभर में लाखों बच्चिया इसके लिए अभिशप्त है। इन्हें भीषण शारीरिक और मानसिक यातना झेलनी पड़ती है। बाल विवाह पर प्रतिबंध के बावजूद रीति-रिवाज, पिछड़ेपन ओर रूढि़वादिता के कारण अब भी देश के कई हिस्सों में लड़कियों को विकास का अवसर दिए बिना अंधे कुंए में धकेला जा रहा है। छोटी उम्र में विवाह से कई बार लड़कियों को बाल वैधव्य का सामना करना पड़ता है, जिससे उनका जीवन मुसीबतों से घिर जाता है।

इसके अलावा बाल विवाह से कई बार वर-वधू के शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक विकास में विपरीत असर पड़ता है। बाल विवाह के कारण लड़कियों की पढ़ाई रुक जाती है। कम पढ़ी-लिखी महिला अंधविश्वासों और रूढि़यों से घिर जाती है। ऐसी पीढ़ी से देश व समाज हित की क्या उम्मीद की जा सकती है? इससे दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है कि करीब 53 प्रतिशत बच्चे यौन शोषण के शिकार हैं। इनमें केवल लड़किया ही नहीं, बल्कि लड़के भी हैं। पाच साल से 12 साल की उम्र के बीच यौन शोषण के शिकार होने वाले बच्चों की संख्या सबसे अधिक है।

कुल मिलाकर कहा जाए तो बच्चों के मामले में भारत की स्थिति सबसे खराब है। प्रशासनिक अधिकारियों को इस तरह की कोई ट्रेनिंग नहीं दी जाती कि वह बच्चों के प्रति संवेदशनील होकर अपने दायित्व को समझें। बच्चे वोट बैंक नहीं होते इसलिए राजनीतिक पार्टिया दिखावे के लिए भी उनकी चिंता नहीं करतीं। सब बातें छोड़ भी दें तो सरकार बच्चों के लिए बेसिक शिक्षा तक नहीं उपलब्ध करवा पा रही है।

पूरे देश में स्कूलों का अब भी अभाव है। जहा स्कूल है भी, वहा कुव्यवस्था है। कहीं अध्यापकों की कमी है तो कहीं जरूरी सुविधाएं नहीं हैं। 10 सितंबर को दिल्ली के खजूरी खास स्थित राजकीय वरिष्ठ बाल/बालिका विद्यालय में परीक्षा से पूर्व मची भगदड़ में पाच छात्रों की मौत हो गई थी, जबकि 32 छात्राएं घायल हुई थीं। इसके पीछे मुख्य वजह कुव्यवस्था थी। यह स्थिति देश की राजधानी की है। इससे पता चलता है कि हम देश के भविष्य के प्रति संवेदनशील और जिम्मेदार है।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की सदस्य संध्या बजाज का कहना है कि गुमशुदा बच्चों के अधिकाश मामलों में रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती। गुम होने वाले ज्यादातर बच्चे शोषण का शिकार होते है। इसलिए हर गुमशुदा बच्चे की रिपोर्ट जरूर दर्ज की जानी चाहिए। बच्चों को शिक्षा का अधिकार मिलने से उनकी जिदंगी और बेहतर बन जाएगी। हम उनसे सबक क्यों नहीं लेते

कई देशों में बच्चों के लिए अलग से लोकपाल नियुक्त हैं। सबसे पहले नार्वे ने 1981 में बाल अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक अधिकारों से युक्त लोकपाल की नियुक्ति की। बाद में आस्ट्रेलिया, कोस्टारिका, स्वीडन [1993], स्पेन [1996], फिनलैंड आदि देशों ने भी बच्चों के लिए लोकपाल की नियुक्ति की। लोकपाल का कर्तव्य है बाल अधिकार आयोग के अनुसार बच्चों के अधिकारों को बढ़ावा देना और उनके हितों का समर्थन करना। यही नहीं, निजी और सार्वजनिक प्राधिकारियों में बाल अधिकारों के प्रति अभिरुचि उत्पन्न करना भी उनके दायित्वों में है। कुछ देशों में तो लोकपाल सार्वजनिक विमर्शो में भाग लेकर जनता की अभिरुचि बाल अधिकारों के प्रति बढ़ाते हैं और जनता व नीति निर्धारकों के रवैये को प्रभावित करते हैं।

बच्चों के शोषण एवं बालश्रम की समस्याओं के मद्देनजर भारत में भी बच्चों के लिए स्वतंत्र लोकपाल व्यवस्था गठित करने की मांग अक्सर की जाती रही है, लेकिन सवाल यह है कि इतने संवैधानिक उपबंधों, नियमों-कानूनों, मंत्रालयों और आयोगों के बावजूद अगर बच्चों के अधिकारों का हनन हो रहा है तो समाज भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता।

सौजन्य ; दैनिक जागरण

Saturday, November 7, 2009

... पर ये जुनून कम नहीं होगा

आईआईएमसी में दाखिला लेने से पहले मैं प्रभाष जोशी जी के बारे में कुछ नहीं जानता था। यहाँ तक कि मुझे यह भी नहीं पता था कि प्रभाष जोशी नाम का कोई व्यक्ति एक वरिष्ठ पत्रकार है। आईआईएमसी में आने के बाद मैंने उनके बारे में सुना और उनसे मिलना चाहा। मेरी यह ख्वाहिश जल्दी ही पूरी हुई, जब वे हमारे संस्थान में एक सेमिनार में आए। उस वक्त मैंने पहली बार उन्हें देखा था। लाख कोशिशों के बाद भी उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। उस सेमीनार में उन्होंने जिस अंदाज़ में अपनी बात कही थी, वो बातें आज भी मेरे कानों में गूंजती रहती है। उनके बोलने का तरीका, शब्दों का चयन और वो आक्रामक तेवर। वास्तव में मुझे पत्रकारिता में आगे बढ़ने के लिए उनकी बातों ने प्रेरित किया।

छह नवम्बर की सुबह मैं सो रहा था। मेरे मोबाइल पर मैसेज आया कि प्रभाष जोशी इस दुनिया में नहीं रहे। मैं हैरान रहा गया। समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। पिछली रात भारत और ऑस्ट्रलिया के बीच हुए मैच को देखते हुए दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई। मैच में सचिन ने १७५ रन बनाए, लेकिन भारत ये मैच हार गया। मैं उनकी मौत के बारे कहूँगा कि क्रिकेट के दीवाने को क्रिकेट ने ही मार दिया। सुबह जब मैं ऑफिस पहुँचा तो सबसे पहले ख़बरों की वेबसाइट्स पर उनकी मौत के बारे में पढ़ा। बहुत दुःख हुआ।

इसमे कोई दो राय नहीं कि वो क्रिकेट और सचिन तेंदुलकर के बहुत बड़े प्रसंशक थे। जब भी मैं क्रिकेट के
बारे में उनके लिखे हुए किसी भी कॉलम को पढ़ता था, तो ऐसा लगता था कि मानो मैंने वो मैच देखा हो। उनकी लेखनी से मुझे इस प्रकार लगाव हो गया था कि मैं 'जनसत्ता' अख़बार केवल उनसे लिखे हुए कॉलम को पढ़ने के लिए ही खरीदता था। उनसे दोबारा मिलने के लिए मैं बैचेन था। मेरी ये बेकरारी जल्दी ही ख़त्म हुई। दूरदर्शन के एक प्रोग्राम के लिए मुझे जाना था। वहां जाकर जब मुझे पता चला कि इस कार्यक्रम में प्रभाष जोशी भी आ रहे हैं तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। इस कार्यक्रम में कई बड़े पत्रकार शामिल थे। करीब एक घंटे बाद जब कार्यक्रम ख़त्म हुआ तो मुझे उनसे मिलने को अवसर मिला। स्टूडियो के बाहर मेरी उनसे मुलाकात हुई। मुलाकात के वो पल मेरे लिए यादगार बन गए। उस समय मेरी उनसे काफ़ी बातें हुईं और पत्रकारिता के बारे में भी उन्होंने मुझे काफी बताया। उन्होंने तब एक बात कही थी, 'पत्रकारिता करने के लिए एक जुनून की ज़रूरत होती है। तुम अभी पत्रकारिता कि दहलीज़ पर हो। यदि इसमें सफल होना चाहते हो तो अपने जुनून को कम मत होने देना।'

आज प्रभाष जोशी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन एक पत्रकार के लिए उन्होंने जिस जुनून की बात कही थी, वो जुनून अब मेरे अन्दर और तेजी से बढ़ेगा। हिन्दी के इस महान पत्रकार को मैं श्रद्धांजलि देता हूँ।