Sunday, March 21, 2010

ओ गौरेया, तू फिर मेरे अंगना में आ

ट्रिन-ट्रिन। मिस कॉल। मैंने मोबाइल उठाकर चैक किया। सुबह के छः बजे थे। मिस कॉल मेरे एक परिचित मित्र की थी। मैंने कॉल बैक की। 'हां राजेश, मैं हबीबगंज रेलवे स्टेशन पर आ गया हूं।' मेरे मित्र ने जवाब दिया। दरअसल, वे पिछली रात को ही मेरे पास भोपाल आने वाले थे, लेकिन पता न होने के कारण वे हबीबगंज से अगले स्टेशन 'इटारसी' पहुंच गए थे। रात को ही उन्होंने मुझे बता दिया था कि वे अब वहां से वापस लौटकर सुबह को भोपाल पहुंचेंगे।

'एक काम करो, स्टेशन से ऑटो पकड़कर दैनिक भास्कर ऑफिस के सामने आ जाओ। मैं वहीं पर मिलता हूं।' मैंने उनसे फोन पर कह दिया। जब आप रात को दो-तीन बजे सोते हो, तो सुबह छः बजे उठना थोड़ा मुश्किल होता है। मेरे वे परिचित मित्र वर्धा (महाराष्ट्र) में महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं। वे भोपाल में किसी काम से आए थे। मेरा फ़र्ज़ बनता था कि मैं उनका मेजबान बनूं और अपनी नींद त्यागूं। फोन डिस्कनेक्ट करके मैं अपने बिस्तर से उठा और दोनों हाथ फैलाकर जोर से अंगड़ाई ली। खिड़की से बाहर देखा। क्या नज़ारा था! सुबह की ठंडी-ठंडी हवा और बाहर मेरे फ़्लैट की चारदीवारी पर गौरेया के झुंड का चहचहाना। सुन्दर, अति सुन्दर! ऐसा लग रहा था कि मानों उस मेहमान ने इसी बहाने भगवान बनकर मुझे इतनी सुबह इतना ख़ूबसूरत नज़ारा दिखाने के लिए उठाया हो। खैर, मैं झटपट तैयार हुआ और अपने मित्र को अपने फ़्लैट पर ले आया।

फ़्लैट पर आकर मैंने अख़बार खोला। आज विश्व गौरेया दिवस है। तभी मैं कहूं कि प्रकृति आज इतनी ख़ूबसूरत क्यों लग रही है। वैसे भी गौरेया से मेरा बचपन का लगाव रहा है। मुझे आज भी बचपन के वो दिन याद हैं, जब मेरे घर के आंगन में रोजाना गौरेया आकर अपनी आवाज से मुझे उठाया करती थी। और मैं भी कितना पागल था, उसे पकड़ने के लिए भागा-भागा फिरता था। सोचता था, काश मेरे भी पंख होते! मैं भी गौरेया कि तरह मेरे घर के आंगन में लगे नीम के पेड़ की हर डाली पर बैठता। आज गौरेया के झुंड को देखकर बचपन का हर बीता हुआ लम्हा याद आ रहा था।

गर्मियों की छुट्टियों में जब मैं अपनी नानी के गांव जाता था, तो वहां पर भी गौरेया का झुंड सुबह से ही चहचहाने लगता था। ऐसा लगता था जैसे कि मानों संगीत की मधुर धुनें बज रही हैं, जिन्हें प्रकृति अपने हाथों से सारेगामापा का स्वर दे रही है। जब भी मैं स्कूल से लौटकर घर आता था, तो अक्सर मेरी पहली मुलाकात मेरे घर के पेड़ पर रहने वालीं गौरेया और गिलहरियों से होती थी। गिलहरियों को हम सब (मेरे घर से सदस्य) गिल्लो कहकर बुलाते थे। एक आवाज़ पर ही सभी गिल्लो चीं...चीं...चीं... करती हुईं पेड़ से उतरकर नीचे आ जाती थीं और हमारे साथ बैठकर खाना खाती थीं। मेरी गली के लोग भी कहते थे, 'आपके द्वारा पाली गईं गिलहरियों को देखकर विश्वास नहीं होता कि ये लोगों से इतनी घुलमिल सकती हैं।' वैसे भी सभी गिल्लो हमसे इतनी घुलमिल गईं थीं कि जब मम्मी खाना बनाती थीं तभी वे पेड़ से नीचे आ जाती थीं और हमारे हाथों से रोटी का टुकड़ा लेकर वहीं आराम से बैठकर खाती थीं। उसी समय मेरे घर के एक कमरे के रोशनदान में एक गौरेया रहती थी। यह गौरेया भी पालतू तो थी, लेकिन अनजान थी। वह भी अपने हिस्से के रोटी के छोटे-छोटे टुकड़ों को चोंच में दबाकर रोशनदान में ले जाती थी और वहीं बैठकर खाती थी। मैं बस उसे टकटकी लगाए देखता रहता था।

आज मेरे घर पर न तो गौरेया है, न गिल्लो हैं और न ही नीम का पेड़। अब जब भी मैं घर जाता हूं, तो एक पल के लिए उस मंजर को ज़रूर याद करता हूं, जब गौरेया मेरे घर के आंगन में फुदक-फुदक करती थी। और मैं भी उसे पकड़ने के लिए दौड़ लगाता था। आज गौरेया के इस तरह से चहचहाने को देखकर दिल से एक ही आवाज़ निकल रही थी, 'ओ गौरेया, तू फिर से मेरे अंगना में आ।'