Sunday, February 13, 2011

एक पत्र मेरी प्रेमिका के नाम

प्रियतमे,
जानता हूं, तुम कुछ नाराज़ हो। और तुम्हारी नाराज़गी भी जायज़ है। आखिर मैंने तुम्हें अभी तक कोई पत्र जो नहीं लिखा। हां, इतना है कि ख्वाबों के पन्नों पर दिल की स्याही से कुछ शब्द ज़रूर लिखे हैं। वे शब्द जो अनदिखे हैं। वे शब्द जो कभी जुबां से बयां नहीं हुए। वे शब्द जो अपने सच होने का इंतजार कर रहे हैं। जानता हूं, तुम मुझसे दूर हो। लेकिन मुझे इसका गम नहीं है। तुम्हारी यादें हर वक्त मेरे साथ रहती हैं। ख्वाबों के इस फ्रेम में तुम्हारी तस्वीर हर समय मेरे साथ रहती है। मेरी सुबह में आज भी तुम्हारे बदन की महक महसूस होती है। जानती हो...मैंने तुम्हारे लिए क्या-क्या सपने सजाए हैं??? वो आसमान की सैर...वो समुद्र का किनारा...और ठंडी-ठंडी हवाओं के बीच सिर्फ मैं और तुम।

कंधे पर टांगने वाला तुम्हारा वो बटुआ, जिसे तुमने कुछ दिनों पहले ख़रीदा था, बहुत सुन्दर है। तुम सोच रही होगी कि मुझे कैसे पता चला? भूल गईं, तुमने मेरे सपने में आकर जो इसे दिखाया था। बटुए का कत्थई रंग तुम्हारे वस्त्रों से मेल खा रहा था। सच कहूं, इस प्रेम-पर्व पर मुझे तुम्हारी काफी याद आ रही है। काश तुम तेरे पास होतीं...काश तुम मेरे साथ होतीं...काश तुम एक हकीकत होतीं। क्या बात है...तुमने अब सपनों में आना कम कर दिया है? क्यों इतनी नाराज़ हो गई हो? तुम्हें याद है बारिश की वो सुबह...जब तुम्हारे भीगे बदन से लिपटी हुई चुनरी पेड़ की शाखा में अटक गई थी। तब तुम कितनी नाराज़ हुईं थीं। तुम्हारे माथे की वो शिकन मुझे आज भी याद है।

इस प्रेम-पर्व पर तुम्हें देने के लिए मैंने खास उपहार खरीदा है। जब तुम मिलोगी, तब दिखाऊंगा। उम्मीद है कि तुम्हें यह उपहार पसंद आएगा। जब तुम सोकर उठती हो, तो क्या अभी भी तुम्हारी जुल्फें सीने से लिपटी हुई होती हैं? कितनी खुशनसीब हैं ना...तुम्हारी जुल्फें। हां...तुम्हारी जुल्फें। बहुत शरारती हैं। जब तुम चलती हो तो तुम्हारे चेहरे पर आकर अठखेलियां करती हैं। जब तुम खड़ी होती हो तो गर्दन पर लिपट जाती हैं। जब तुम नहाती हो तो बदन से चिपक जाती हैं। तुम्हारी आंखों का काजल आज भी तुम्हारे सौंदर्य में चार-चांद लगाता होगा। तुम्हारा वह सौंदर्य जो कुदरत की देन है।

क्या तुम्हें पता, जब कुछ तितलियों ने तुम्हें चारों ओर से घेर लिया था। ऐसी ही एक तितली आज मेरे पास आई। मुझे कुछ दूरी पर बैठी हुई थी। गुमसुम। ना जाने उसे क्या हुआ था...मैं उससे कुछ पूछना चाहता था...कुछ कहना चाहत था...और हां, तुम्हारे पास एक सन्देश भिजवाना चाहता था। जब मैं उसके पास गया वह उड़ गई। लगता है तुम अब मुस्कुरा रही होगी। मेरे भी चेहरे पर एक मुस्कराहट आ गई है। तुम भी सोच रही होगी कि मैं भी ना जाने इस पत्र में क्या-क्या लिख रहा हूं। बुद्धू, पागल और ना जाने किस-किस नाम से तुम मेरा नाम ले रही होगी। हां...बुद्धू हूं मैं....तुम्हारा बुद्धू... तुम्हारे लिए बुद्धू। मुझे उम्मीद है कि अब तुम्हारी नाराज़गी दूर हो गई होगी। और हां...कोशिश करूंगा कि मैं तुम्हारे लिए पत्र लिखता रहूं। अंत में तुम्हारे लिए एक खास सन्देश, 'मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं। इस प्रेम-पर्व की तुम्हें बहुत-बहुत बधाई।'

तुम्हारा...सिर्फ तुम्हारा...
बुद्धू

Tuesday, February 8, 2011

मोहे भी रंग दियो बासंती रंग ने

आज मेरा मन चंचल है। इधर-उधर घूम रही हूं। कभी पेड़ों से टकराती तो कभी फूलों को छूकर निकल जाती। आप लोगों को भी मैं खुद के शरारती होने का अहसास कर रही हूं। क्या करूं...आज मेरा मन चंचल जो है। इस बासंती रंग ने अपने रंग में मुझे भी रंग दिया है। मेरे अन्दर भी प्रेम-भाव की भावना उमंग ले रही है। आज मेरा खुद पर बस नहीं है। ऐसा है इस बसंत का रंग। मैं हवा हूं। कोई राह नहीं। बस चले जा रही हूं। रमे जा रही हूं। इस बासंती रंग में।

पेड़ों पर बौर इस दुनिया में आ चुके हैं। शाखाओं से चिपके हुए। इन्हें इंतजार है खुद के जवान होने का। मैं इन्हें झूला झुला रही हूं। आज प्रकृति भी नए वस्त्रों से सजी हुई है। नई दुल्हन की तरह दिखाई दे रही है। बासंती रंग का खुमार प्रकृति पर भी चढ़ा हुआ है। बच्चे भी खुश दिखाई दे रहे हैं। खेल रहे हैं। कूद रहे है। पतंग उड़ा रहे हैं। मैं इनके कानों में मधुर स्वर घोल रही हूं। ये मेरे होने का अहसास कर रहे हैं। मैं देख रही हूं कि भौंरे फूलों को छेड़ रहे हैं। इनमें भी प्यार की लहरे हिलोरें ले रही हैं। मैं देख रही हूं कि गेहूं की फसल पर सोने की परत ने चढ़ना शुरू कर दिया है। किसान के चेहरे पर हंसी और जानवरों की मस्ती पर भी बासंती रंग चढ़ गया है।

इन सबके बावजूद मुझे कुछ दुःख है। मुझे दुःख है इस बात का कि पूरी मानव प्रजाति खुश नहीं है। इस बसंत ऋतु में काफी लोगों के चेहरे पर मुझे ख़ुशी दिखाई नहीं दे रही है। ये लोग प्रेम-भाव से दूर हैं। मैं देख रही हूं कि कुछ लोग आपस में लड़ रहे हैं। एक दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं। ना जाने क्यों...??? वह प्यार जो कभी एक-दूसरे पर उमड़ता था, कहीं खो गया है। कहीं खो गई हैं वो नज़रें जिनसे कभी मानव एक-दूसरे को देखा करता था। वो नज़रें जिनमें खुशियों भरी चमक होती थी। खो गई हैं गावों की वो चौपालें जिन पर कभी लोगों की हंसी सुनाई देती थी। हुक्कों की गडगडाहट सुनाई देती थी। अब तो गावों की चौपाल से चारपाई भी गायब होने लगी है।

इस प्यार भरे मौसम में मुझे लोगों के बीच प्यार कम या ये कहूं कि दिखाई ही नहीं दे रहा है। और मैं हूं कि इस बासंती रंग में पागल हो रही हूं। लोग इस मौसम का सिर्फ मजा ले रहे हैं। समझ नहीं रहे। वे नहीं समझ रहे कि हम एक-दूसरे की बीच की दूरियों को मिटा दें। हम मिटा दें वो फासले जिन्होंने एक दीवार का रूप ले लिया है। वे दीवारें जिन्होंने लोगों के बीच प्यार को कम कर दिया है। वह प्यार जो हमारे देश की एकता और अखंडता को एक डोर में बांधे रखता है। मुझे दुःख होता है यह देखकर कि आज मानव मानवता को भूलता जा रहा है।

मुझे एक कटती हुई पतंग दिखाई दे रही है। इधर-उधर उड़ रही है। मुझे इसे सहारा देने की ज़रुरत है। आखिर यह कटी पतंग कब तक मेरी बाहों में रहेगी। कटने के बाद इसे आना तो ज़मीन पर ही होगा। काश! यह कटी न होती...काश! यह डोर से बंधी हुई होती...इसी कटी पतंग की तरह एक दिन मानव भी ज़मीन पर आ गिरेगा। यदि इसे बुलंद रहना है तो प्यार के डोर में बंधे रहने होगा। मेरा क्या है...मैं आज इधर तो कल उधर...बासंती मौसम भी कुछ समय बाद चला जाएगा। यह चला जाएगा एक संदेश देकर। वह संदेश को प्यार भरा है...उमंग भरा है...शरारत भरा है...

Thursday, February 3, 2011

दीवार पर हवाई जहाज आज भी बनता है

याद करो बचपन का वो ज़माना, जब सर्दियों में रात को बिस्तर पर लेटे हुए छत और दीवारों पर नज़र पड़ती थी। कमरे की वो दीवारें जिन पर अजीब सी आकृतियां नज़र आती थीं। कभी हाथी, कभी घोड़ा, कभी अपने देश का नक्शा तो कभी उड़ता हुआ हवाई जहाज। हां...हवाई जहाज। और ऐसी ना जाने कितनी आकृतियां हमें कमरे की उन दीवारों पर नज़र आती थीं। वह दीवारें जिनसे पुताई की पपड़ियां छूट रही होती थीं। वह दीवारें जिन पर बारिश के पानी की सीलन आती थी। मेरे घर के वो कमरे आज भी वही हैं। कुछ कमरे और बन गए हैं। बारिश के बाद दीवार पर सीलन आज भी रहती है। पपड़ी आज भी छुटती है। और...हां...हवाई जहाज आज भी बनता है।

समय अपने बदलने का अहसास करा चुका है। समय के साथ हवाई जहाज की भी स्पीड बढ़ चुकी है। वह हवाई जहाज मेरे घर से करीब एक हजार किलोमीटर की दूरी तय कर अब इंदौर में आ गया है। यहां मेरे कमरे की दीवारों पर ना तो सीलन है और ना ही उनसे छुटती पपड़ी। लेकिन वो हवाई जहाज...हां वही... मेरे घर वाला, आज भी कभी-कभी दीवारों पर नज़र आ जाता है। अब यह कुछ शोर करने लगा है। वापस उसी दीवार पर जाना चाहता है। वह दीवार जो मेरे घर पर है। वह दीवार जो इसका एअरपोर्ट है। और मेरी नज़रें इसका ईंधन। अब इसे कौन समझाए कि समय बहुत आगे निकल चुका है। हां, इतना आगे कि इस जहाज को वापस एअरपोर्ट पर पहुंचना नामुमकिन है।

हवाई जहाज के साथ में दीवारों पर हाथी-घोड़े को भी तलाश करता हूं। ये अब दिखाई नहीं देते। लगता है इन्होंने साथ छोड़ दिया है। और हो भी क्यों ना...आखिर जिंदगी में साथ होता ही किसका है। और यदि हो भी तो कितने दिन का???? हां इतना ज़रूर है कि यह हवाई जहाज मुझे मेरे घर की याद दिलाता है। अपने एअरपोर्ट की याद दिलाता है। और याद दिलाता है मेरा वो अतीत जिसे मैंने बहुत पीछे छोड़ दिया है। समय अपनी रफ़्तार को और अधिक बढ़ा चुका है। मैं इस हवाई जहाज से आगे निकलना चाहता हूं। इतना आगे कि इसकी परछाईं भी मुझे दिखाई ना दे। मैं अपने अतीत में ना पहुंच पाऊं। जैसे मुझे हाथी और घोड़ों ने छोड़ दिया ऐसे ही मैं अब इसे छोड़ना चाहता हूंमुझे अब मेरे सपनों के हवाई जहाज की ज़रुरत है। वह हवाई जहाज जिस पर मेरे सपनों के पंख लगे हुए हैं। मेरे वह सपने जो मेरा भविष्य हैं। वह भविष्य जो मेरा है

काफी रात हो चुकी है
। नींद मुझे अपने आगोश में ले रही है। कमरे की जलती हुई लाइट मुझे परेशान कर रही है। मच्छरों ने भी अपना म्यूजिक शुरू कर दिया है। ऐसे म्यूजिक जिसे मैं तो क्या आप भी सुनना पसंद नहीं करेंगेलेकिन सामने की दीवार पर वह हवाई जहाज मुझे अभी भी दिखाई दे रहा है। शोर करता हुआ। इन सबका एक ही समाधान है कि मैं नींद के आगोश में चला जाऊं। अगली सुबह एक नए जोश, नई उम्मीद और अपने सपने की ओर कदम बढ़ाने के लिए। मैं अब इस हवाई जहाज को आज की रात के लिए दूर कर रहा हूंहां...आज की रात के लिए, क्योंकि पता नहीं ये शायद कल रात फिर मेरे कमरे की दीवार पर फिर आ जाए

Monday, January 31, 2011

दिल करता है आज फिर 'बच्चा' बन जाऊं

आजकल दिल में एक अजीब सी बैचेनी होती है। रह-रह कर बचपन का समय याद आता है। सुबह उठते ही पड़ोस में रहने वाले मुनीम जी के घर पर दस्तक देता था। और नानी के गांव में एक प्राइमरी स्कूल में करीब दो महीने की पढ़ाई। गांव में लहलहाते खेत और अपने शहर में रात को आसमान में उड़ते हवाई जहाजों की लाइट देख शोर मचाना। इन बातों को याद कर दिल कह उठता है कि मैं आज फिर बच्चा बन जाऊं। लौट जाए यह समय। पहुंचा दे उस दुनिया में जहां कोई फ़िक्र नहीं थी। गांव के उस स्कूल से छुट्टी के समय घर तक की करीब 20 मिनट की दूरी एक घंटे में पूरी करना। रास्ते में पड़ने वाले बाग़ के पेड़ों से फल तोड़ना। जब बाग़ का माली हमें देखता तो उसे देख वहां से या तो रफूचक्कर हो जाना या किसी पेड़ की आड़ में छिप जाना।

मुझे याद हैं बारिश के वो दिन, जब मेरी गली में कुछ पानी भर जाता था। उस पानी में कागज़ की कश्ती का हिचकोले लेना। नानी के यहां दूध की हांडी से चुपके-चुपके मलाई खाना। लेकिन पकड़े जाने पर डांट भी खूब पड़ती थी। 25 या 50 पैसे में पूरे दिन दुकान से चीज लेकर खाना। कभी-कभी जब एक रुपया मिल जाता, तो हमसे बड़ा शहंशाह कोई नहीं। मुझे याद है तौलिए में मक्के की रोटी के साथ चावल की खिचड़ी बांधकर खेत पर ले जाना। सावन के महीने में पेड़ों पर रस्सी डालकर झूला झूलना। मन करता था कि पेंग बढ़ाकर नभ को छू लूं। पर आसमान भी शरारती। खुद को और ऊंचा कर लेता।

मुझे आज बचपन का वह जमाना याद आता है। शहर में मेरे घर की गली अभी भी वही है। बारिश भी होती है, लेकिन पानी नहीं भरता। मेरे साथ गली भी जवान हो गई है। जवानी की दहलीज़ पर कदम रखते ही बचपन को छोड़ दिया। नहीं छूटीं तो यादें। हां...यादें। वो यादें जो आज भी मेरे ज़हन में रहती हैं।

रात को ऑफिस से आने के बाद नींद जल्दी नहीं आती। लेकिन बचपन में शाम होते ही नींद अपने आगोश में ले लेती थी। पेड़ों पर चिड़ियाओं ने भी चहचहाना कम कर दिया है। या यह कहूं कि बंद कर दिया है। गांव के वो खेत आज भी वही हैं। बदला है तो सिर्फ खेत का कुआं। वह कुआं जिसमें दोस्तों के साथ मिट्टी के कंकड़ों से निशाना लगाते थे।

मुझे याद है मेरी गली में वो बाइस्कोप और खिलौने वाले का आना। 25 या 50 या एक रोटी में बाइस्कोप दिखाता था। गाने की फरमाइश अमिताभ या मिथुन की फिल्म की होती थी। बदलते समय से साथ वह बाइस्कोप वाला भी कहीं खो गया है। बचा है तो सिर्फ उसका नाम। गर्मियों की रात में गली के बच्चों के साथ खेलना। जब लाइट चली जाती थी तो आइस-पाइस (हाइड एंड सीक) खेलने का मजा दोगुना हो जाता था।

आज की भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी में वो बचपन मीलों पीछे छूट गया है। सामने कुछ जिम्मेदारियां बाहें फैलाए खड़ी हैं। आखिर बचपन का साथ होता ही कितना है। यही आठ-दस साल। इसके बाद तो सिर्फ उसकी यादों का साथ होता है। वह यादें जिन्हें कभी नहीं भुलाया जा सकता। वह यादें जिनका उदाहरण जवानी में आकर बच्चों को दिया जाता है। आज जब कभी दोस्तों के साथ महफ़िल में उन यादों को याद करता हूं तो दिल उठता है, 'आज मैं फिर से बच्चा बन जाऊं...फिर से बच्चा बन जाऊं।'