Wednesday, September 7, 2016

बारिश के बीच 90 मिनट

          ‘क्या...? फुटबॉल खेलने चलना है...? ऐसी बारिश में...?’ जिंदगी में पहली बार फुटबॉल खेलने के लिए मेरे मुंह से निकले ये पहले शब्द थे। उस उम्र में नहीं पता था कि फुटबॉल कितनी देर के लिए खेला जाता है। इसकी एबीसीडी क्या होती हैं? वगैरह...वगैरह..। बस ये पता था कि फुटबॉल को लात मारनी है और एक बिना जाल वाले घेरे (गोल पोस्ट) के अंदर पहुंचानी है। बिना जाल वाला इसलिए कि बस फुटबॉल खेलना था...टूर्नामेंट नहीं।
          ‘जूते नहीं पहनेगा क्या?’, मेरे एक साथी ने मुझसे पूछ लिया।
          ‘नहीं यार...गिर गया तो...?, मैंने भी अपने होठों को अंग्रेजी के लेटर ‘ओ’ का आकार बनाते हुए कह दिया (सॉरी...लेकिन आप ये आकार न बनाएं। अजीब लगता है)। टीम कितने लोगों की होती है, यह भी नहीं पता था। क्रिकेट थोड़े ही खेलने जा रहे थे, जो साथ चलने वाले दोस्तों से बोलना पड़ता, ‘अरे यार 22 में दो की कमी है। कौन नहीं आया...? सोनू और रवि तो हैं ही नहीं। चलो उन्हें भी बुलाकर लाते हैं।’ यह फुटबॉल है जनाब और अभी क्रिकेट की तरह हम भारतीयों की नसों में नहीं घुसा है। शायद थोड़ा समय लगेगा...शायद ज्यादा...!
          खैर, उस दिन हम बच्चों और बड़ों की टीम में कितने सदस्य थे यह तो नहीं पता। बस इतना पता है कि हमने एक दोस्त की फुटबॉल ली और बारिश में भीगते हुए कुछ दूरी पर मौजूद मैदान पहुंच गए। बारिश की बूंदों के बीच टीम का बंटवारा हो चुका था। उम्र और लंबाई में बड़े कुछ लोग बच्चा पार्टी के साथ आधे-आधे बंट गए थे। गेम शुरू हो चुका था। खेलने के नियम-कानूनों से अनजान लक्ष्य बस एक था। बॉल (चलो ठीक है...फुटबॉल) को पैरों से मारते बस इतना करना था कि वह दूसरे छोर पर मौजूद दो र्इंटों के बीच में से निकल जाए। र्इंटों के बीच से निकल जाए...! हां, क्योंकि हमारे लिए वहीं गोल पोस्ट थीं।
          आसान सा दिखने वाला काम आसान नहीं था। न मेरे लिए और न मेरे बाकी साथियों के लिए। विकेट और रनों की पिच पर दौड़ने वाले पैर फुटबॉल पर थे। बस दौड़ना था। बारिश की बूंदों के बीच। 90...80...70...कितने मिनट...पता नहीं। चेहरे पर हंसी आने तक खेलना था। और हंसी तभी आती थी, जब फुटबॉल र्इंटों के बीच में से पार हो जाती थी। जीतने का अंतर क्या था, यह भी नहीं पता था। क्योंकि जीत मैच के बाद हो रही चर्चाओं में शामिल थी। वह चर्चा जो बारिश की बूंदों के थमने के बाद शुरू हुई थी।
          ‘तुझसे तो भागा ही नहीं जा रहा था।...और देखो मार कहां रहा था और फुटबॉल जा कहां रही थी...।’ मैच के बाद हमारी चर्चाओं में से एक लाइन ऐसी भी थी। कौन जीता...? पता नहीं। कौन हारा...ये भी नहीं पता। बस एक चीज पता थी। बारिश के बीच फुटबॉल खेलते हुए वो 90 मिनट (काल्पनिक) जिंदगी के सबसे खुशनुमा पलों में से एक थे। वे पल जो अब कहानी का रूप ले लेते हैं। वे कहानियां, जो या तो किताबों में सिमट जाती हैं या इंटरनेट की दुनिया में खो जाती हैं। और जब कभी किसी प्लेटफॉर्म की ओर से ऐसे पलों को जिंदा करने के खास मौके मिलते हैं, तो ये कब्र खोदकर खुशी-खुशी बाहर आ जाते हैं।