Monday, January 31, 2011

दिल करता है आज फिर 'बच्चा' बन जाऊं

आजकल दिल में एक अजीब सी बैचेनी होती है। रह-रह कर बचपन का समय याद आता है। सुबह उठते ही पड़ोस में रहने वाले मुनीम जी के घर पर दस्तक देता था। और नानी के गांव में एक प्राइमरी स्कूल में करीब दो महीने की पढ़ाई। गांव में लहलहाते खेत और अपने शहर में रात को आसमान में उड़ते हवाई जहाजों की लाइट देख शोर मचाना। इन बातों को याद कर दिल कह उठता है कि मैं आज फिर बच्चा बन जाऊं। लौट जाए यह समय। पहुंचा दे उस दुनिया में जहां कोई फ़िक्र नहीं थी। गांव के उस स्कूल से छुट्टी के समय घर तक की करीब 20 मिनट की दूरी एक घंटे में पूरी करना। रास्ते में पड़ने वाले बाग़ के पेड़ों से फल तोड़ना। जब बाग़ का माली हमें देखता तो उसे देख वहां से या तो रफूचक्कर हो जाना या किसी पेड़ की आड़ में छिप जाना।

मुझे याद हैं बारिश के वो दिन, जब मेरी गली में कुछ पानी भर जाता था। उस पानी में कागज़ की कश्ती का हिचकोले लेना। नानी के यहां दूध की हांडी से चुपके-चुपके मलाई खाना। लेकिन पकड़े जाने पर डांट भी खूब पड़ती थी। 25 या 50 पैसे में पूरे दिन दुकान से चीज लेकर खाना। कभी-कभी जब एक रुपया मिल जाता, तो हमसे बड़ा शहंशाह कोई नहीं। मुझे याद है तौलिए में मक्के की रोटी के साथ चावल की खिचड़ी बांधकर खेत पर ले जाना। सावन के महीने में पेड़ों पर रस्सी डालकर झूला झूलना। मन करता था कि पेंग बढ़ाकर नभ को छू लूं। पर आसमान भी शरारती। खुद को और ऊंचा कर लेता।

मुझे आज बचपन का वह जमाना याद आता है। शहर में मेरे घर की गली अभी भी वही है। बारिश भी होती है, लेकिन पानी नहीं भरता। मेरे साथ गली भी जवान हो गई है। जवानी की दहलीज़ पर कदम रखते ही बचपन को छोड़ दिया। नहीं छूटीं तो यादें। हां...यादें। वो यादें जो आज भी मेरे ज़हन में रहती हैं।

रात को ऑफिस से आने के बाद नींद जल्दी नहीं आती। लेकिन बचपन में शाम होते ही नींद अपने आगोश में ले लेती थी। पेड़ों पर चिड़ियाओं ने भी चहचहाना कम कर दिया है। या यह कहूं कि बंद कर दिया है। गांव के वो खेत आज भी वही हैं। बदला है तो सिर्फ खेत का कुआं। वह कुआं जिसमें दोस्तों के साथ मिट्टी के कंकड़ों से निशाना लगाते थे।

मुझे याद है मेरी गली में वो बाइस्कोप और खिलौने वाले का आना। 25 या 50 या एक रोटी में बाइस्कोप दिखाता था। गाने की फरमाइश अमिताभ या मिथुन की फिल्म की होती थी। बदलते समय से साथ वह बाइस्कोप वाला भी कहीं खो गया है। बचा है तो सिर्फ उसका नाम। गर्मियों की रात में गली के बच्चों के साथ खेलना। जब लाइट चली जाती थी तो आइस-पाइस (हाइड एंड सीक) खेलने का मजा दोगुना हो जाता था।

आज की भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी में वो बचपन मीलों पीछे छूट गया है। सामने कुछ जिम्मेदारियां बाहें फैलाए खड़ी हैं। आखिर बचपन का साथ होता ही कितना है। यही आठ-दस साल। इसके बाद तो सिर्फ उसकी यादों का साथ होता है। वह यादें जिन्हें कभी नहीं भुलाया जा सकता। वह यादें जिनका उदाहरण जवानी में आकर बच्चों को दिया जाता है। आज जब कभी दोस्तों के साथ महफ़िल में उन यादों को याद करता हूं तो दिल उठता है, 'आज मैं फिर से बच्चा बन जाऊं...फिर से बच्चा बन जाऊं।'