Wednesday, September 15, 2010

कितनी स्थाई होगी झारखंड में आठवीं सरकार

बिहार से 2000 में झारखण्ड के अलग होने के बाद इस बात की उम्मीद लगाई जा रही थी कि विकास से महरूम रहे इस क्षेत्र का शायद अब सही ढंग से विकास हो पाएगा। लेकिन 10 साल में आठ सरकार बनने के बाद भी यहां की जनता को विकास के लिए इंतजार करना पड़ रहा है। अर्जुन मुंडा के रूप में झारखण्ड की जनता को मिली आठवीं सरकार कितनी स्थाई होकर यहां का विकास करेगी, इस बात को कहना मुश्किल है। झारखण्ड में पिछले दस साल का इतिहास गवाह रहा है कि राज्य का जो भी मुख्यमंत्री बना है उसने सिर्फ इसे लूटा है। या ये कहें कि विकास के नाम पर राजनीति की है।

81 विधानसभा सीटों वाले इस राज्य में पिछले वर्ष दिसंबर में चुनाव हुए। लोगों को उम्मीद थी कि इस बार किसी एक पार्टी की सरकार बनेगी। लेकिन जब परिणाम आए तो किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। इससे साफ़ हो गया कि इस बार भी गठबंधन वाली सरकार ही होगी। वह सरकार जिसकी बुनियाद कमजोर होगी। इस चुनाव में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) ताकत के रूप में उभरा। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जेएमएम की ताकत आदिवासी और पिछड़े खासकर महतो समुदाय के लोग हैं। जेएमएम प्रमुख शिबू सोरेन आदिवासी नेता हैं और इनके लिए लगातार आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं। साथ ही इस चुनाव में जेएमएम किंगमेकर के रूप में सामने आई थी। इससे सोरेन का मुख्यमंत्री बनना लगभग तय था। और हुआ भी यही। 30 दिसंबर को सोरेन राज्य के सातवें मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री के रूप में गुरूजी का यह तीसरा कार्यकाल था। भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए के सहयोग से बनी यह सरकार भी लगभग चार महीने बाद ही उस समय अल्पत में आ गई जब भाजपा ने उससे समर्थन वापसी का ऐलान कर दिया। इसका कारण सोरेन खुद बने, क्योंकि उन्होंने भाजपा द्वारा लाए गए बजट कटौती प्रस्ताव के खिलाफ मतदान कर दिया था। यह मतदान सीधे यूपीए सरकार के पक्ष में था। हालांकि दिल्ली से रांची जाते समय इसके लिए सोरेन ने माफ़ी भी मांगी, लेकिन तब-तक देर हो चुकी थी। भाजपा की संसदीय समिति ने सोरेन के इस कदम को गठबंधन धर्म के खिलाफ बताया।

काफी जद्दोज़हद के बाद भी सोरेन भाजपा को मनाने में असफल रहे और अंततः ३० मई को उन्हें अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी। इसके ठीक दो दिन बाद एक जून को राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। इससे पहले भी यहां करीब एक साल राष्ट्रपति शासन रहा है। करीब तीन महीने राष्ट्रपति शासन रहने के बाद सात दिसंबर को भाजपा ने जेएमएम के साथ मिलकर सरकार बनाने की दावेदारी पेश कर दी। इस बार जेएमएम ने भाजपा को बिना किसी शर्त के समर्थन देने की बात की। आख़िरकार ११ सितंबर को अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में एक और नई सरकार का गठन हो गया। लेकिन जिन राजनीतिक समीकरणों से इस सरकार का गठन हुआ है उन्हें देखते हुए इस सरकार के भविष्य पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। इसका भी मुख्य कारण भाजपा और जेएमएम हैं, क्योंकि दोनों पार्टियों को स्वाभाविक सहयोगी नहीं कहा जा सकता।

नाजुक गठबंधन के बहुमत पर टिकी सरकारों से देश और राज्य अच्छी तरह परिचित हैं। ऐसी सरकारें अस्थिरता के झूले में झूलती नज़र आती हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण झारखण्ड ही है जहां कोई भी सरकार राज्य से दस सालों के इतिहास में अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई है। तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने मुंडा ने बेशक कहा हो कि उनकी यह सरकार स्थिर रहेगी और जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरेगी। लेकिन मौजूदा हालात को देखते हुए मुंडा के दावों पर यकीन करना कठिन है।

लौह अयस्क, तांबा अयस्क, कोयला, अभ्रक आदि प्राकृतिक संसाधनों वाले इस राज्य में जो भी सरकारें बनी हैं उन्होंने यहां की जनता को अधिकतर निराश ही किया है। यही नहीं राजनीतिक उठापठक के चलते पिछले कुछ सालों में झारखण्ड में प्रशासन व्यवस्था भी ख़राब हुई है। साथ ही इस राज्य में नक्सल एक बड़ी समस्या है। पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के चार हज़ार करोड़ रुपए के स्पेक्ट्रम घोटाले से प्रदेश की छवि ख़राब हुई है। यही नहीं स्थाई सरकार के अभाव में झारखण्ड की विकास दर भी गिरी है, जिससे यह राज्य और ज्यादा पिछड़ गया है। इस समय मुंडा के सामने झारखण्ड को इन हालातों से निकालकर विकास की और ले जाना एक बड़ी चुनौती है। यही नहीं मुंडा की सरकार से यहां के लोगों को काफी अपेक्षाएं हैं। साथ ही मुंडा के लिए यह समय अवसर भुनाने का है। अब देखना यह है कि मुंडा की यह सरकार कितने दिन टिकती है और यहां के विकास के लिए क्या कम करती है।