Saturday, December 11, 2010

अनकही नज़रें

या तो वह उदास थी, या उसे कोई परेशान कर रहा था। उसके माथे की शिकन मुझे इस बात का आभास करा रही थी कि वो बैचेन है। कभी अपने हाथ की उंगलियों को मरोड़ती तो कभी अपनी नज़रों से इधर-उधर देखती। अपनी नज़रें चुराकर मैंने कई बार उसकी ओर देखा। कई बार उससे नज़रें मिलीं। वह मुझे गुस्से में दिखी। कुछ देर बाद मेरे पास आई और मुझे छूकर बहुत तेजी से निकल गई। मैं उसे पकड़ पता उससे पहले ही उसकी मां वहां आ गई थी।

'तुम यहां क्या कर रही हो?' उसकी मां ने डांट लगाते हुए उससे कहा। वह सिर्फ मुस्कुराई। कुछ नहीं बोली और अपनी मां के आंचल से लिपट गई। मैं टकटकी लगाए यह सब देख रहा था। न जाने क्या हुआ था उसे। उसने मेरी ओर एक नज़र देखा और अजीब सा मुंह बनाया। हाथों से कुछ इशारा भी किया, लेकिन मैं समझ नहीं पाया।

'भाईसाहब आपकी चाय', चाय वाले ने चाय का गिलास मेरी ओर करते हुए कहा। मैंने चाय की एक चुस्की ली। वो अभी भी मेरी ओर देख रही थी। मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे कि मानों वो मुझसे कुछ कहना चाहती हो।
'भाईसाहब, लगता है आपको बाज़ार से शकर सस्ती मिलती है?', मैंने उसकी ओर से अपनी नज़रें हटाते हुए चाय वाले से कहा।
'नहीं साहब, ऐसा नहीं है। क्या हुआ। तुम ऐसा क्यों पूछ रहे हो?', चाय वाले ने मुझसे पूछा।
'आपकी चाय इतनी मीठी जो है,' मैंने उसे हंसते हुए जवाब दिया।

वह अभी भी अपनी मां के साथ थी। मेरी चाय भी ख़त्म होने वाली थी। तभी उसकी मां उसे लेकर मेरे पास आई और बोली,'बाबूजी...'
उस लड़की की नज़रें अब बड़ी मासूमियत से मेरी ओर देख रही थीं। मैंने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाले और उसे दे दिए। मैं वापस अपने कमरे पर आ चुका था। रास्ते में सोचता रहा कि वह चार-पांच साल की लड़की जिसके बाल बिखरे हुए और तन कर नाममात्र कपड़े, अपनी मां से कितना प्यार करती है। यह जानते हुए भी कि उसका जीवन दूसरों पर निर्भर है। इतना प्यार हम दूसरों से करें, तो अपने साथ दूसरों का भी जीवन बदल सकते हैं।

Thursday, November 25, 2010

This is Today

Is this Today? Often I ask this stupid question to myself. I don't remember, but when I was child there was a photo frame at my home. I used to ask my father,'Papa, what is written in this frame?' My father said, 'When you will grow then read it.' Actually it was written in English language and that time I didn't know anything about English.

There were written some lines about Today on white paper in that frame. The heading was 'This is Today.' Now, where is that frame nobody know from my family members. Today, I find that frame, but that is not. It has been misplaced.

Few days ago, after returning at my home in Indore from office at 2am, I was laying on the bed. Not feeling sleepy. I went on my past memories at childhood. Stucked at frame scene. I compared heading of those lines with my Today. Today I am getting 'This is Today.' We understand the value of today, when we lost it. I have lost my many todays, but don't want to lose it again. I am not loser. I accept, I have lost many things waiting for today. It is said,'To get something we have to lose something.' But there are few things remain I have not achieved so far.

Many people say to me,'Rajesh, today you are lucky. You are living enjoyable life. You have good job, good salary according job. you are tension free.' But tension free...??? No, besides job I have few tension. When I phone at my home, my mother says,'Beta (son), live without tension.' I know, I don't need any kind of tension. But when you live out of your home then some concerns are inevitable.

Today I think, I am tension free, No tension for spending money, no tension for getting up early in the morning and so on...Today I think, where am I? Is this final end of my future? No, no, no...this is not final end of my future. I want to move ahead. I want to do different in my life. My struggle for my future has not finished. My dreams have not fulfilled. Today is partially for me. This partially today is not mine. My today is waiting for me. It is calling me. I am moving towards them. It is saying, 'I am today.' I am smiling and looking it. I am saying, 'Wait, I am coming.' Yes, wait. I know tomorrow never waits, but today waits for better tomorrow.

Saturday, October 2, 2010

आस्था के न्याय पर न हो राजनीति

छः दशक के लम्बे इंतजार के बाद अयोद्धया मसले पर आया फैसला सुकून देने वाला है। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच द्वारा दिए गए फैसले से लगभग सभी राजनैतिक दल संतुष्ट नज़र आए। लेकिन फैसले के दो दिन बाद ही समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख मुलायम सिंह यादव अपनी जुबान खोल बैठे। वह भी ऐसे समय जब फैसले पर दो मुख्य पार्टियां भाजपा और कांग्रेस फैसले से खुश नज़र आ रही हैं। 1990 में अपनी रथ यात्रा से हिन्दुओं में राम भक्ति का अलख जगाने वाले भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी भी अब फैसला आने के बाद उसकी तारीफ करते नहीं थक रहे। यही नहीं फैसले के बाद किसी भी प्रकार की अनहोनी की जो आशंका लगाई जा रही थी वह भी गलत साबित हुई। इससे पता चलता है कि देश की जनता अब अपनी ज़िम्मेदारी के प्रति काफी सजग हो गई है। वह समझ गई है कि कोई भी सज्जन व्यक्ति चाहें वह किसी भी धर्म का हो उसे आज अपने कामों से फुरसत नहीं है। हां, इतना ज़रूर है कि असामाजिक तत्व ज़रूर शांति में खलल डालने की कोशिश कर सकते हैं।

अब से करीब 18 साल पहले 1992 को बाबरी मस्जिद ढहने के बाद जो हिंसा हुई थी, उसकी चिंगारी राजनीति से ही प्रेरित थी और उसके बाद पूरे देश में इस चिंगारी ने आग का रूप धारण कर लिया था। उस समय मैं बहुत ही छोटा था, लेकिन उस आग में देश किस प्रकार जल रहा था यह मुझे अच्छी तरह याद है। मेरे पापा भी पत्रकार हैं और उस समय कर्फ्यू के दौरान उन्हें रिपोर्टिंग के लिए कर्फ्यू पास मिला हुआ था। उस समय पापा की रिपोर्टिंग की फाइल आज भी मौजूद है। एक बार वो फाइल मेरे हाथ लग गई थी। पापा की वो ख़बरें जो अखबार में छपी थीं, उन्हें पढ़कर एक भयावह द्रश्य मेरी आंखों के सामने आ गया था। जब कोर्ट का फैसला आया तो मैं भगवान से यही प्रार्थना कर रहा था कि 1992 फिर से न दोहराया जाए। आख़िरकार फैसला आने के बाद सब कुछ सही सलामत निपट गया। हां, इतना ज़रूर है कि विवादित ज़मीन को तीन हिस्सों में बांटने के फैसले से कुछ लोग ज़रूर नाराज़ हैं, लेकिन ख़ुशी की बात यह है कि उनमें बदले की भावना कहीं दिखाई नहीं दे रही। वैसे भी जो पक्ष इस फैसले से खुश नहीं हैं उनके पास सुप्रीम कोर्ट में जाने का रास्ता खुला हुआ है।

मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मुलायम सिंह को इस फैसले से क्यों निराशा हुई है? आखिर मुलायम सिंह ने क्यों कहा कि फैसले से मुसलमान खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं? जब कि किसी भी मुसलिम दल ने इस प्रकार की कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी। आखिर मुलायम सिंह को क्यों ऐसा लगा कि न्यायपालिका ने यह फैसला आस्था को कानून और सबूतों को ऊपर रखकर दिया है? मुलायम सिंह को ऐसा क्यों लग रहा है कि इस फैसले के बाद आगे चलकर अनेक संकट पैदा होंगे? मुलायम सिंह मुसलमानों के प्रति इतने मुलायम कब से हो गए कि उन्होंने कह दिया कि फैसले से पूरे मुसलिम समुदाय में मायूसी है?

पिछले वर्ष मई में मुलायम सिंह के सहयोगी रहे आज़म खान को खुद मुलायम ने पार्टी से छः साल के लिए निकाल दिया। इस पर मुलायम सिंह का तर्क था कि आज़म पार्टी विरोधी काम कर रहे थे। आज़म को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा उन्होंने भाजपा के पूर्व नेता कल्याण सिंह को अपनी पार्टी में शामिल करने का मन बना लिया। पार्टी के सम्मेलनों में मुलायम सिंह कल्याण सिंह को अपने साथ ले जाने लगे। क्या मुलायम सिंह यहां यह भूल गए थे कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री थे और तब से लेकर अब तक वे मुस्लिमों के निशाने पर हैं। जहां एक तरफ मुलायम सिंह आज़म खान को बाहर कर काफी मुस्लिमों के बुरे बन गए थे, वहीं कल्याण से दोस्ती ने आग में घी का काम कर दिया। मुलायम सिंह के इस रवैये से मुसलिम इतने खफा हुए कि उन्होंने धीरे-धीरे पार्टी से किनारा करना शुरू कर दिया। आखिरकार सपा प्रमुख को अपनी गलती का अहसास हुआ और कल्याण से कन्नी काट ली।

पिछली इन बातों को ध्यान में रख हो सकता है कि वो मुस्लिमों के हितैषी बनने की कोशिश कर रहे हों, लेकिन उनकी भाषा बदली हुई है। मुलायम सिंह की फैसले पर प्रतिक्रिया के बाद उनकी निंदा मुस्लिमों ने भी ज़ोरदार तरीके से की है। ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य और ईदगाह के नायब इमाम मौलाना रशीद फिरंगी महली ने मुलायम सिंह की प्रतिक्रिया के बाद कहा कि पूरे देश में दोनों समुदाय के के धार्मिक नेताओं, राजनेताओं और मीडिया ने इस संवेदनशील मुद्दे पर अपनी ज़िम्मेदारी और संयम का परिचय दिया है। किसी को भी ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए जो राजनीति से प्रेरित लगती हो और जिससे सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने की आशंका हो। वहीं शिया मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद मिर्ज़ा अतहर ने मुलायम सिंह के बयान पर आश्चर्य जताया।

मुसलिम-यादव (माई) का फ़ॉर्मूला आजमाने वाले मुलायम सिंह को ऐसे बयान राजनीति में शोभा नहीं देते। मुसलिम समुदाय की ओर से आए इन बयानों के बाद अब मुलायम सिंह को समझ में आ जाना चाहिए कि आज का भारत अब काफी बदल चुका है। साथ ही राजनेताओं को भी फैसले पर अब ऐसी किसी भी प्रकार की टिप्पणी से बचना चाहिए जिससे सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने की आशंका हो।

Wednesday, September 15, 2010

कितनी स्थाई होगी झारखंड में आठवीं सरकार

बिहार से 2000 में झारखण्ड के अलग होने के बाद इस बात की उम्मीद लगाई जा रही थी कि विकास से महरूम रहे इस क्षेत्र का शायद अब सही ढंग से विकास हो पाएगा। लेकिन 10 साल में आठ सरकार बनने के बाद भी यहां की जनता को विकास के लिए इंतजार करना पड़ रहा है। अर्जुन मुंडा के रूप में झारखण्ड की जनता को मिली आठवीं सरकार कितनी स्थाई होकर यहां का विकास करेगी, इस बात को कहना मुश्किल है। झारखण्ड में पिछले दस साल का इतिहास गवाह रहा है कि राज्य का जो भी मुख्यमंत्री बना है उसने सिर्फ इसे लूटा है। या ये कहें कि विकास के नाम पर राजनीति की है।

81 विधानसभा सीटों वाले इस राज्य में पिछले वर्ष दिसंबर में चुनाव हुए। लोगों को उम्मीद थी कि इस बार किसी एक पार्टी की सरकार बनेगी। लेकिन जब परिणाम आए तो किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। इससे साफ़ हो गया कि इस बार भी गठबंधन वाली सरकार ही होगी। वह सरकार जिसकी बुनियाद कमजोर होगी। इस चुनाव में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) ताकत के रूप में उभरा। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जेएमएम की ताकत आदिवासी और पिछड़े खासकर महतो समुदाय के लोग हैं। जेएमएम प्रमुख शिबू सोरेन आदिवासी नेता हैं और इनके लिए लगातार आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं। साथ ही इस चुनाव में जेएमएम किंगमेकर के रूप में सामने आई थी। इससे सोरेन का मुख्यमंत्री बनना लगभग तय था। और हुआ भी यही। 30 दिसंबर को सोरेन राज्य के सातवें मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री के रूप में गुरूजी का यह तीसरा कार्यकाल था। भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए के सहयोग से बनी यह सरकार भी लगभग चार महीने बाद ही उस समय अल्पत में आ गई जब भाजपा ने उससे समर्थन वापसी का ऐलान कर दिया। इसका कारण सोरेन खुद बने, क्योंकि उन्होंने भाजपा द्वारा लाए गए बजट कटौती प्रस्ताव के खिलाफ मतदान कर दिया था। यह मतदान सीधे यूपीए सरकार के पक्ष में था। हालांकि दिल्ली से रांची जाते समय इसके लिए सोरेन ने माफ़ी भी मांगी, लेकिन तब-तक देर हो चुकी थी। भाजपा की संसदीय समिति ने सोरेन के इस कदम को गठबंधन धर्म के खिलाफ बताया।

काफी जद्दोज़हद के बाद भी सोरेन भाजपा को मनाने में असफल रहे और अंततः ३० मई को उन्हें अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी। इसके ठीक दो दिन बाद एक जून को राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। इससे पहले भी यहां करीब एक साल राष्ट्रपति शासन रहा है। करीब तीन महीने राष्ट्रपति शासन रहने के बाद सात दिसंबर को भाजपा ने जेएमएम के साथ मिलकर सरकार बनाने की दावेदारी पेश कर दी। इस बार जेएमएम ने भाजपा को बिना किसी शर्त के समर्थन देने की बात की। आख़िरकार ११ सितंबर को अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में एक और नई सरकार का गठन हो गया। लेकिन जिन राजनीतिक समीकरणों से इस सरकार का गठन हुआ है उन्हें देखते हुए इस सरकार के भविष्य पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। इसका भी मुख्य कारण भाजपा और जेएमएम हैं, क्योंकि दोनों पार्टियों को स्वाभाविक सहयोगी नहीं कहा जा सकता।

नाजुक गठबंधन के बहुमत पर टिकी सरकारों से देश और राज्य अच्छी तरह परिचित हैं। ऐसी सरकारें अस्थिरता के झूले में झूलती नज़र आती हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण झारखण्ड ही है जहां कोई भी सरकार राज्य से दस सालों के इतिहास में अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई है। तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने मुंडा ने बेशक कहा हो कि उनकी यह सरकार स्थिर रहेगी और जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरेगी। लेकिन मौजूदा हालात को देखते हुए मुंडा के दावों पर यकीन करना कठिन है।

लौह अयस्क, तांबा अयस्क, कोयला, अभ्रक आदि प्राकृतिक संसाधनों वाले इस राज्य में जो भी सरकारें बनी हैं उन्होंने यहां की जनता को अधिकतर निराश ही किया है। यही नहीं राजनीतिक उठापठक के चलते पिछले कुछ सालों में झारखण्ड में प्रशासन व्यवस्था भी ख़राब हुई है। साथ ही इस राज्य में नक्सल एक बड़ी समस्या है। पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के चार हज़ार करोड़ रुपए के स्पेक्ट्रम घोटाले से प्रदेश की छवि ख़राब हुई है। यही नहीं स्थाई सरकार के अभाव में झारखण्ड की विकास दर भी गिरी है, जिससे यह राज्य और ज्यादा पिछड़ गया है। इस समय मुंडा के सामने झारखण्ड को इन हालातों से निकालकर विकास की और ले जाना एक बड़ी चुनौती है। यही नहीं मुंडा की सरकार से यहां के लोगों को काफी अपेक्षाएं हैं। साथ ही मुंडा के लिए यह समय अवसर भुनाने का है। अब देखना यह है कि मुंडा की यह सरकार कितने दिन टिकती है और यहां के विकास के लिए क्या कम करती है।

Thursday, August 12, 2010

'बाबू जी, किताब ले लो'

कुछ दिनों पहले मैंने कुनाल खेमू अभिनीत फिल्म 'ट्रैफिक सिग्नल' देखी थीफिल्म की कहानी से प्रेरित अपने जीवन की एक घटना मैं आपसे यहां शेयर कर रहा हूंउम्मीद करता हूं कि आप लोगों को पसंद आएगी

दिल्ली में जितनी ज्यादा सर्दी पड़ती है, उतना ही गर्मी से भी दो-चार होना पड़ता है। मई-जून के महीने में जब आप दिल्ली की ब्लू लाइन बस में सफ़र करते हैं तो आपके हालात और बदतर हो जाते हैं। सबसे ज्यादा हालत तो तब ख़राब होती है, जब आपकी खचाखच भरी बस किसी रेड लाइट पर खड़ी हो जाए। ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ था। मई 2008 में रोजाना की तरह मैं ओखला मंडी स्थित अपने ऑफिस के लिए निकला। दोपहर का एक बज रहा था। मुनिरका से ओखला मंडी के लिए मैंने 507 पकड़ीअभी आईआईटी ही पहुंचा था कि वहां स्थित रेड लाइट पर लम्बा जाम मिल गयाहालांकि बस वहां से लेफ्ट टर्न लेती है, जिसके लिए रेड लाइट कोई मायने नहीं रखतीचूंकि जाम लम्बा था, तो इंतजार करना पड़ा

खिड़की के पास वाली सीट पर बैठा मैं बाहर की ओर देख रहा थाअचानक मेरी नज़र वहां पर किताबें बेच रहे एक लड़के पर पड़ीउसकी उम्र करीब दस-बारह की साल थीहाथों में ढेर सारी किताबेंशरीर पर नाममात्र के कपड़ेतभी एक चमचमाती हुई कार वहां पर आकर रुक गईवह दौड़ता हुआ उस कार के पास पहुंचा और बोला, 'बाबू जी, किताब ले लो।' उसके इतना कहते ही कार के अन्दर एसी में बैठे व्यक्ति ने उसकी तरफ बिना देखे ही मना कर दियामेरी नज़रें उस लड़के की ओर थींकुछ देर बाद वह लड़का वहां खड़ी अन्य कारों की तरफ गया और अपने हाथ में उठाए किताबों को बेचने की कोशिश में लग गया

उस समय फिल्म देखते समय मेरी आंखों में इस बच्चे का ख्याल आ गया। ऐसे न जाने कितने बच्चे ट्रैफिक सिग्नल पर अपनी जिंदगी इस प्रकार से गुजारते हैं। सरकारी आंकड़े गरीबी कम बताने की कितनी भी हिमाकत करें, लेकिन हकीकत किसी से भी छिपी हुई नहीं है। ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगने या अपना पेट पालने के लिए कुछ न कुछ बेचने वाले न जाने कितने बच्चों को हर साल सड़कों पर अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। दिल्ली को ही ले लीजिये, कुछ दिनों बाद यहां कॉमनवेल्थ गेम्स होने वाले हैं। विदेशी मेहमानों की नज़रों में देश की छवि साफ़-सुथरी बनी रहे इसके लिए यहां के भिखारियों को दिल्ली से बाहर किया जा रहा है। लेकिन सवाल यहां पर यह है कि इन्हें राजधानी से बाहर निकालने के बजाय इनकी तरफ ध्यान देकर इनके उत्थान के लिए कोई कार्य क्यों नहीं किया जा रहा है?

खैर, मैं यहां पर इस मामले में सरकार की आलोचना नहीं करुंगा, क्योंकि रेड लाइट पर अपनी जिंदगी गुज़ारने वालों की सरकार कितनी खबर लेती है यह बात किसी से नहीं छिपी है। मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूं। कुछ देर बाद सिग्नल ग्रीन हो गया और कुछ बसों के आगे निकलने के साथ ही मेरी बस भी अपने गंतव्य स्थान की ओर आगे बढ़ चुकी थी। मेडिकल से बस बदलकर मैं करीब एक घंटे में ऑफिस पहुंच चुका था। ऑफिस पहुंचने के बाद भी मेरी आंखों में किताब बेचने वाले का चेहरा घूम रहा था। वह लड़का जिसे शायद पढ़ना-लिखना न आता हो, वो सड़कों पर दूसरों को ज्ञान दे वाली किताबें बेच रहा था। वो किताबें जिन्हें हम ट्रैफिक सिग्नल पर बेचने वाले बच्चों से खरीदते हैं और घर जाकर मजे से पढ़ते हैं। लेकिन क्या कभी उस बच्चे के बारे में सोचते हैं जिससे हम वह किताब खरीदते हैं। वह बच्चा जो हमारे पास आकर कहता है,'बाबू जी किताब ले लो...'

Thursday, August 5, 2010

वो चुलबुली, चुलबुली ही रही


'यार हम लेट हो न हो जाएं।' अपने माथे से पसीना पौछ्ते हुए मेरी दोस्त ने मुझसे कहा। बात 2008 की उस समय की है जब मैं भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), नई दिल्ली में पढ़ता था। मेरी वह दोस्त दिल्ली यूनिवर्सिटी (साऊथ कैम्पस) से एमए कर रही थी। उसे थिएटर का भी शौक है। हम लोग नोर्थ कैम्पस जा रहे थे। 'भैया ऑटो थोड़ा तेज चलाओ न।' उसने झल्लाते हुए ऑटो चालक से कहा। उससे मेरा हाथ खींचा और मेरी कलाई पर बंधी घड़ी में समय देखा।

दिल्ली में उस समय वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी। या यह कहूं कि अभी भी है। उस समय उसके कॉलेज में एक नाटक का मंचन होना था। उसकी तैयारी के लिए वो मुझे अपने साथ नोर्थ कैम्पस ले जा रही थी। धौला कुआं से हमें फैकल्टी ऑफ़ आर्ट (नोर्थ कैम्पस) पहुंचने में करीब डेढ़ घंटा लगा। 'भैया कितने पैसे हुए?' उसने ऑटो चालक से पूछा। '65 रुपए', ऑटो वाले ने मीटर देखकर कहा। उसने ऑटो वाले को पैसे दिए और मेरा हाथ पकड़कर कॉलेज में ले गई।

'हाय सीमा, यार तूने आने में कितनी देर कर दी। जरा घड़ी की तरफ देख दो बज गए हैं। और तुझे पता है न कि सर्दियों में दो बजे शाम जैसा समय हो जाता है। हम तेरा यहां पर कितनी देर से इंतजार कर रहे हैं।' वहां इंतजार कर रही उसकी एक दोस्त ने उस पर थोडा गुस्सा करते हुए कहा। हां, सीमा नाम है उसका। 'सॉरी यार, थोड़ा लेट हो गई। अच्छा देखो मेरे साथ कौन आया है?' फिर क्या था, निकल गया करीब आधा घंटा एक-दूसरे के परिचय में। उसके दोस्तों के साथ उसके नाटक की रिहर्सल शुरू हुई। हिन्दू-मुस्लिम एकता पर आधारित था उसका वह नाटक। मुझे काफी पसंद आया। शाम को करीब सात बजे रिहर्सल ख़त्म हुई। 'चलें सीमा?' मैंने उससे घर चलने के लिए कहा। 'नहीं, अभी कोई नहीं जाएगा। थोड़ी भूख लगी है, कुछ खाते हैं।' उसकी एक दोस्त ने वहां पर मौजूद सभी दोस्तों से कहा।

थोड़ी सी पेट-पूजा करने के बाद हम दोनों घर की और निकल लिए। दरअसल मेरा घर उसके घर के रास्ते में ही पड़ता था। हम दोनों मेट्रो स्टेशन पहुंचे। केन्द्रीय सचिवालय का टोकन लेकर मेट्रो का इंतजार करने लगे। कुछ देर बाद मेट्रो आई और हम दोनों उसमें बैठ गए। इस समय करीब आठ बजे का समय था। ट्रेन में उसकी चुलबुली बातें शुरू हो गईं। कुछ देर बार हम केन्द्रीय सचिवालय पहुंच गए। वहां से हम दोनों को रूट नंबर 680 की बस पकड़नी थी। 'राजेश, भूख लगी है। कुछ खाते हैं', बस स्टैंड पर बस का इंतजार करते हुए उसने कहा। वहां पर हमने दो-दो समौसे खाए। कुछ देर बाद हमारी बस आ गई और हम बस में बैठकर घर के लिए चल दिए।

भोपाल में नौकरी के दौरान पिछले साल नवम्बर में किसी काम से मैं दिल्ली अपने घर गया था। उसे बताया नहीं। जब मैं लौटकर आया तो सुबह-सुबह उसका फ़ोन आ गया। मैंने बातों-बातों में उसे बता दिया कि मैं घर से आज सुबह ही आया हूं। फिर क्या था, बरस पड़ी मेरे ऊपर। जमकर गुस्सा हुई कि मैंने उसे नहीं बताया। आज उससे अलग हुए एक साल से ज्यादा हो गया है। लेकिन उसे जब भी कोई ख़ुशी होती है, उसे वो मुझसे ज़रूर शेयर करती है। इसी साल उसका जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी में पीएचडी में नंबर आ गया है और साथ ही उसे एक अख़बार में नौकरी भी मिल गई है। जब उसने मुझे फोन पर बताया तब वह बहुत खुश थी। मुझे भी उतनी ही ख़ुशी थी कि मेरी एक दोस्त अपने मकसद में कामयाब हो गई।

मुझे आज भी उसकी वो चुलबुली बातें याद आती हैं। आज भी जब वो मुझे फोन करती है, तो ऐसा लगता है कि वो मेरे सामने है। आज भी वो ऐसी ही चुलबुली है, जैसी पहले थी।

Thursday, June 24, 2010

कैसे हो न्याय की उम्मीद

भोपाल में हुई विश्व की सबसे भीषण त्रासदी के 26 साल बाद आए फैसले ने न्याय और तत्कालीन सरकार दोनों को कटघरे में खड़ा कर दिया है। इस त्रासदी में मुख्य भूमिका निभाने वाले यूनियन कार्बाइड कंपनी के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन को अमेरिका भेजने को लेकर केंद्र सरकार की आलोचना भी की जा रही है। 1984 में 2-3 दिसंबर की रात इस फैक्ट्री से जहरीली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट के रिसाव से हजारों लोगों की मौत के जिम्मेदारों को 26 साल बाद निचली अदालत से सजा मिली। लेकिन जिस प्रकार से आठ आरोपियों को सजा मिली उसे देखकर लगता है कि उस रात गैस से मरे और प्रभावित हुए लाखों लोगों के साथ यह एक मज़ाक है। मात्र दो साल की कैद और प्रत्येक पर एक लाख एक हज़ार 750 रुपए का जुर्माना। फैसले के तुरंत बाद 25 हज़ार के मुचलके पर आरोपियों को जमानत मिलना। साथ ही मुख्य आरोपी एंडरसन और गैर हाज़िर चल रही दो कंपनियां कार्बाइड कॉर्पोरेशन और कार्बाइड इस्टर्न इंडिया (हांगकांग) का फैसले में उल्लेख न होना।

अब जब फैसला हो गया है तो सभी राजनैतिक दल अपनी-अपनी सफाई देने में लगे हैं। मुख्य आरोपी एंडरसन को भारत से अमेरिका भगाने में जहां मध्य-प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह चारों ओर से घिरे दिखाई दे रहे हैं, वहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री की भी एंडरसन को भगाने में अहम भूमिका बताई जा रही है। केंद्र सरकार ने इस कांड की परिस्थितियों की समीक्षा करने के लिए गृहमंत्री पी चिदंबरम की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय मंत्रियों का समूह बनाकर ज़िम्मेदारी की इतिश्री कर ली है।

इस त्रादसी में आरोपियों पर लगीं विभिन्न धाराओं में गैर जमानती धारा 304 भी थी, जिसे दबाव में आकर 304(a) में बदल दिया। यह दबाव किसका था? ज़ाहिर है उस समय सत्ता में बैठे लोगों का। लेकिन इसी क्या मज़बूरी थी कि धारा को बदलना पड़ा? क्या सिर्फ इसलिए कि यदि यह केस धारा 304 में चलता तो आरोपियों को अधिक सजा होती और इसके बाद विदेशी कंपनियां भारत में आने से कतरातीं? हो सकता है कि इसमें सच्चाई हो, लेकिन विदेशी कंपनियों को भारत में लाने का क्या यही अर्थ हुआ कि किसी विदेशी कंपनी की स्थापना के बदले अपने देश के लोगों की ज़िंदगी से सौदा किया जाए?

सात जून को जब इस त्रासदी पर फैसला आया तो फैसले से नाखुश होते हुए कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने बेशक कहा हो कि कानून दफ़न हो गया है, लेकिन यहां सोचने वाली बात है कि क्या कानून पहली बार दफ़न हुआ है? कानून मंत्री को क्या यह नहीं पता कि आज भी अपने देश में इतने केस हैं कि उनमें से काफी केसों के फैसले आने तक या तो मुजरिम की मौत हो जाती है या न्याय की आस में बैठे लोगों की। क्या वे इस बात को भूल गए हैं कि एक नाबालिग लड़की से छेड़छाड़ के मामले में हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौड़ को 19 साल बाद सजा मिली वह भी मात्र छह महीने और एक हज़ार रूपए के जुर्माने की। यही नहीं, एक घंटे के अंदर उसे जमानत मिल गई और फैसले के खिलाफ़ हाईकोर्ट में अपील करने का महीने भर का समय। जिस प्रकार से वह फैसले वाले दिन कोर्ट से हंसता हुआ बहार निकला, लगा मानो कानून का मखौल उड़ा रहा हो।

भोपाल गैस त्रादसी और छेड़छाड़ के अकेले ऐसे केस नहीं हैं जिन पर कोर्ट से आए फैसले से लोगों को कोई ख़ुशी हुई हो। हमें याद करना चाहिए 2006 में नोएडा में हुए निठारी हत्याकांड को। जिस प्रकार से कोठी नंबर डी-5 के पीछे नाले में से बच्चों के कंकाल बरामद हुए थे, उसे देखकर लगता था कि इसके गुनहगार जल्द ही सूली पर होंगे। लेकिन इसका फैसला आने में भी करीब चार साल लगे। ऐसा ही कुछ इस समय 2001 में संसद पर हुए हमले के आरोपी अफज़ल गुरु को लेकर हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसकी फांसी की सजा को बरकरार रखा है, लेकिन उसकी क्षमा याचना की सुनवाई की फाइल पर अभी भी सरकारी अडचनें आ रही हैं। दिल्ली सरकार को 16 बार याद दिलाने के बावज़ूद भी फाइल आगे नहीं बढ़ी थी। वो तो भला हो दिल्ली के एक पत्रकार का जिन्होंने सूचना के अधिकार का प्रयोग करते हुए गृह मंत्रालय से अफज़ल मामले की अपडेट मांगी। मीडिया में काफी हो-हल्ला होने के बाद तब कहीं जाकर दिल्ली सरकार की नींद टूटी और फाइल ने कुछ गति पकड़ी।

वैसे भी सरकारी ढर्रे के चलते अफज़ल के दिन मजे में कट रहे होंगे, क्योंकि जब उसकी याचिका पर सुनवाई होगी तब तक काफी समय निकल चुका होगा। हमें इस बात का भी आश्चर्य नहीं होगा कि 26/11 के गुनहगार अजमल कसब की फांसी के लिए भी कुछ और महीनें या कहें कि कुछ और साल इंतजार करना पड़े। यह बात जग जाहिर है कि आतंकवादियों या गुनहगारों को सजा देने के लिए एक तो अपने देश में वैसे ही काफी समय लगता है, दूसरे यदि उन्हें किसी तरह कोर्ट से सजा मिल भी जाए तो उसे अंजाम तक पहुंचने में सालों लगते हैं। अधिकतर केसों में अपने वोट बैंक को बचाने के लिए सरकार कानून और फैसले के बीच में आ खड़ी होती है।

कहते हैं कि सांप के निकल जाने के बाद लकीर को पीटने से कुछ नहीं होता। ऐसा ही कुछ अब इन मामलों को लेकर हो रहा है। भोपाल गैस त्रासदी के बारे में कांग्रेस ने अपनी छवि पाक-साफ़ रखने के लिए इस मामले में चुप्पी साध रखी है। वहीं अर्जुन सिंह पर हो रही आरोपों की बरसात की एक भी छींट वो खुद पर लेने से बच रही है। बहरहाल जो भी हो, लेकिन इतना तय है कि न्याय की आस लगाए बैठे लोगों को अभी भी न्याय से महरूम होना पड़ रहा है। कभी न्याय के आड़े सरकार आती है तो कभी धन-बल। यही नहीं सत्ता में बैठे नेता भी अपनी ताकत के बल पर या तो केस को कमज़ोर बनवा देते हैं या फिर उसे ख़त्म करवा देते हैं। आखिर हम न्याय की उम्मीद किससे और कैसे लगाए? अब समय आ गया है न्यायिक प्रक्रिया को और दुरुस्त कर उसमें से लालफीताशाही का हस्तक्षेप निकल दिया जाए, जिससे लोगों को सही और जल्दी न्याय मिल सके।

Sunday, March 21, 2010

ओ गौरेया, तू फिर मेरे अंगना में आ

ट्रिन-ट्रिन। मिस कॉल। मैंने मोबाइल उठाकर चैक किया। सुबह के छः बजे थे। मिस कॉल मेरे एक परिचित मित्र की थी। मैंने कॉल बैक की। 'हां राजेश, मैं हबीबगंज रेलवे स्टेशन पर आ गया हूं।' मेरे मित्र ने जवाब दिया। दरअसल, वे पिछली रात को ही मेरे पास भोपाल आने वाले थे, लेकिन पता न होने के कारण वे हबीबगंज से अगले स्टेशन 'इटारसी' पहुंच गए थे। रात को ही उन्होंने मुझे बता दिया था कि वे अब वहां से वापस लौटकर सुबह को भोपाल पहुंचेंगे।

'एक काम करो, स्टेशन से ऑटो पकड़कर दैनिक भास्कर ऑफिस के सामने आ जाओ। मैं वहीं पर मिलता हूं।' मैंने उनसे फोन पर कह दिया। जब आप रात को दो-तीन बजे सोते हो, तो सुबह छः बजे उठना थोड़ा मुश्किल होता है। मेरे वे परिचित मित्र वर्धा (महाराष्ट्र) में महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं। वे भोपाल में किसी काम से आए थे। मेरा फ़र्ज़ बनता था कि मैं उनका मेजबान बनूं और अपनी नींद त्यागूं। फोन डिस्कनेक्ट करके मैं अपने बिस्तर से उठा और दोनों हाथ फैलाकर जोर से अंगड़ाई ली। खिड़की से बाहर देखा। क्या नज़ारा था! सुबह की ठंडी-ठंडी हवा और बाहर मेरे फ़्लैट की चारदीवारी पर गौरेया के झुंड का चहचहाना। सुन्दर, अति सुन्दर! ऐसा लग रहा था कि मानों उस मेहमान ने इसी बहाने भगवान बनकर मुझे इतनी सुबह इतना ख़ूबसूरत नज़ारा दिखाने के लिए उठाया हो। खैर, मैं झटपट तैयार हुआ और अपने मित्र को अपने फ़्लैट पर ले आया।

फ़्लैट पर आकर मैंने अख़बार खोला। आज विश्व गौरेया दिवस है। तभी मैं कहूं कि प्रकृति आज इतनी ख़ूबसूरत क्यों लग रही है। वैसे भी गौरेया से मेरा बचपन का लगाव रहा है। मुझे आज भी बचपन के वो दिन याद हैं, जब मेरे घर के आंगन में रोजाना गौरेया आकर अपनी आवाज से मुझे उठाया करती थी। और मैं भी कितना पागल था, उसे पकड़ने के लिए भागा-भागा फिरता था। सोचता था, काश मेरे भी पंख होते! मैं भी गौरेया कि तरह मेरे घर के आंगन में लगे नीम के पेड़ की हर डाली पर बैठता। आज गौरेया के झुंड को देखकर बचपन का हर बीता हुआ लम्हा याद आ रहा था।

गर्मियों की छुट्टियों में जब मैं अपनी नानी के गांव जाता था, तो वहां पर भी गौरेया का झुंड सुबह से ही चहचहाने लगता था। ऐसा लगता था जैसे कि मानों संगीत की मधुर धुनें बज रही हैं, जिन्हें प्रकृति अपने हाथों से सारेगामापा का स्वर दे रही है। जब भी मैं स्कूल से लौटकर घर आता था, तो अक्सर मेरी पहली मुलाकात मेरे घर के पेड़ पर रहने वालीं गौरेया और गिलहरियों से होती थी। गिलहरियों को हम सब (मेरे घर से सदस्य) गिल्लो कहकर बुलाते थे। एक आवाज़ पर ही सभी गिल्लो चीं...चीं...चीं... करती हुईं पेड़ से उतरकर नीचे आ जाती थीं और हमारे साथ बैठकर खाना खाती थीं। मेरी गली के लोग भी कहते थे, 'आपके द्वारा पाली गईं गिलहरियों को देखकर विश्वास नहीं होता कि ये लोगों से इतनी घुलमिल सकती हैं।' वैसे भी सभी गिल्लो हमसे इतनी घुलमिल गईं थीं कि जब मम्मी खाना बनाती थीं तभी वे पेड़ से नीचे आ जाती थीं और हमारे हाथों से रोटी का टुकड़ा लेकर वहीं आराम से बैठकर खाती थीं। उसी समय मेरे घर के एक कमरे के रोशनदान में एक गौरेया रहती थी। यह गौरेया भी पालतू तो थी, लेकिन अनजान थी। वह भी अपने हिस्से के रोटी के छोटे-छोटे टुकड़ों को चोंच में दबाकर रोशनदान में ले जाती थी और वहीं बैठकर खाती थी। मैं बस उसे टकटकी लगाए देखता रहता था।

आज मेरे घर पर न तो गौरेया है, न गिल्लो हैं और न ही नीम का पेड़। अब जब भी मैं घर जाता हूं, तो एक पल के लिए उस मंजर को ज़रूर याद करता हूं, जब गौरेया मेरे घर के आंगन में फुदक-फुदक करती थी। और मैं भी उसे पकड़ने के लिए दौड़ लगाता था। आज गौरेया के इस तरह से चहचहाने को देखकर दिल से एक ही आवाज़ निकल रही थी, 'ओ गौरेया, तू फिर से मेरे अंगना में आ।'

Tuesday, February 9, 2010

How will social justice?


Before some days, I was reading an article in DNA newspaper. In that article the writer pointed out some things, how we can make better of our education. There were some recommendations for union minister of Human Resource Development Kapil Sibal. Today I read another news in newspaper. News was shocked. In Uttar Pradesh assembly there are 59 MLAs who don't know about their education. Even 123 MLAs from total 404 MLAs either 10th pass-fail or 12th.

One day before this news Chief Minister of UP Km. Mayawati announced to hike salary of her state's MLAs by 70 percent. Here is to thing that in which direction UP is going? Besides western UP areas which is include with NCR the rest of part in UP is looking for their growth. From farmers to businessmen, students to employees and labors to strugglers everyone is facing their problem. Supremo of UP Mayawati is concentrated only for her and the founder of Bahujan Samaj Party (BSP) idols. After spending more than two thousand crore rupees for emplacement of idols, now she is ready for there safety by special force. Asking by media she said,"It is necessary to prevent the idols from anti-social elements." Now again huge money will be spend.

If we look towards UP's public, they want more option for their growth. But due to the lack of options, they are moving to other states for their living. UP government has not communicated neither there ministers nor state's people so far, how we (UP) can reach on top? And how we can do better from other states? Poverty is high, literacy rate is down, less jobs, no good facilities for farmers, less electricity and many more things from which UP's people is facing nowadays.

Now let me clear, when UP's MLAs including ministers are less educated or zero educated, so can we think UP will grow? I think not only UP any state of any country in this world can’t grow. If we leave UP’s public MLAs, ministers and their closer person or relative are growing. But what about? Money!

Mayawati says,"Uttar Pradesh should be divided into three parts Harit Pradesh, Bundelkhand and poorwanchal, than this state can grow." Now she forgets what she said during assembly election campaign? She said only BSP can rule better in this state and bring many changes. I think now BSP has gone behind their agenda during election campaign. First, if Mayawati wants grow of UP, she will have to leave agenda of partition of UP, forgate about idols. Moderate their Soldiers (MLAs and Ministers). Must go to its people and ask about their problems. Than something could be better of UP. Otherwise in next state election BSP will be behind and the next government must have some other party (no doubt that now congress is leading in UP).

Saturday, February 6, 2010

इस वायरस का एंटी वायरस कब आएगा?


जब इन्टरनेट भारत में नया-नया आया था, तो लोगों को पता तक नहीं था कि वायरस नाम की कोई चीज कम्प्यूटर को अपना शिकार बना सकती है। खैर, कुछ समय बाद इसकी काट निकाल ली गई और इस वायरस से निपटने के लिए तरह-तरह के एंटी वायरस बाज़ार में आ गए। कम्प्यूटर को तो लोगों ने बचा लिया, लेकिन अपने देश में घुस आए क्षेत्रीयवाद के वायरस से बचने के लिए एंटी वायरस का देश की जनता को अभी तक इंतजार है।

मराठा मानुष नाम का यह वायरस देश में इस तरह अपना घर बना चुका है कि इससे निपटने के लिए सरकार ने भी अपने हाथ खड़े कर दिए हैं। केवल बातों के जरिए ही इस वायरस को ख़त्म करने के हवाई किले बनाए जा रहे हैं। महाराष्ट्र में घुसे इस वायरस ने अपना आतंक इस कदर फैला रखा है कि आम आदमी तो दूर, इससे निपटने के लिए राज्य और केंद्र सरकार भी असहाय नज़र आ रही हैं। 80 के दशक में जब शिव सेना ने मराठी मानुष का राग अलापना शुरू किया था, तभी लोगों को लगने लगा था कि कहीं ऐसा न हो कि आगे चलकर यह राग एक भयंकर रूप ले ले। आज तीन दशक बाद लोगों की समझ में आ गया है कि राजनीतिक खिचड़ी पकाने के लिए राजनेता क्षेत्रीयवाद की आग को भड़का रहे है हैं। चाहें महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे हों या शिव सेना के बाल ठाकरे, दोनों ही समय-समय पर महाराष्ट्र के मराठियों के लिए नए-नए फरमान जारी करते रहते हैं। कभी वे टैक्सी चालकों का मराठी होना ज़रूरी बताते हैं तो कभी वहां की सरकारी नौकरियों पर मराठियों का हक़ होना। यही नहीं ये उत्तर भारतीयों को महाराष्ट्र के विकास में बाधा बताते हुए उन्हें मारते-पीटते रहते हैं। साथ ही उत्तर भारतीयों का हिंदी भाषी होने के कारण इन्हें तरह-तरह की यातनाएं भी दी जाती हैं।

यहां ठाकरे परिवार यह भूल जाता है कि महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई को आर्थिक राजधानी और फिल्म सिटी का दर्जा दिलाने में उत्तर भारतीयों का काफी सहयोग रहा है। एक तरफ जहां शिव सेना और मनसे ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हो रहे नस्लीय हमले की विवेचना करते हैं, तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही देश में उत्तर भारतीयों पर हमले करके अपना सीना चौड़ा कर बिंदास घूमते हैं। इन्हें लगता है कि सरकार इन्हीं की है। और हो भी सकता है। जिस प्रकार से इन पर कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की जाती, उसे देखकर तो यही लगता है। महाराष्ट्र में इन दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता सड़कों पर खुलेआम आतंक फैलाते हैं और सरकार हाथ पर हाथ धरे तमाशा देखती रहती है।

यदि हम महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों में दोनों पार्टियों की स्थिति पर नज़र डालें तो शिव सेना के खाते में जहां 45 सीटें हैं, वहीं मनसे के पास मात्र 13 सीटें हैं। पिछले वर्ष हुए लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र की 48 सीटों में से शिव सेना को मात्र 11 सीटें मिलीं, जबकि मनसे का खाता तक नहीं खुल पाया। यहां गौर करने वाली बात है कि मात्र मुट्ठी भर सीट होने पर ये दोनों पार्टियां इस कदर ग़दर मचाती हैं, तो सोचिए अगर केंद्र की लगाम इनके हाथ में हो तो क्या हो सकता है! डर लगता है यह सोचकर कि कहीं भारत महाराष्ट्र न बन जाए। अब समय आ गया है कि क्षेत्रीयवाद की आग फ़ैलाने वाले कोई भी हों, उन्हें कड़ा सबक मिलना चाहिए। साथ ही देश में एक नहीं ऐसे अनेक एंटी वायरस आने चाहिए जो क्षेत्रीयवाद के वायरस को नष्ट कर अमन-चैन फैला सकें, क्योंकि अनेकता में एकता ही अपने देश की पहचान है।

Friday, January 29, 2010

संविधान को कोसने वाले अपने गिरेबां में झांकें

सोच रहा था कि २६ जनवरी को गणतंत्र के ६० वर्ष पूरे होने पर कुछ लिखुंगा। लेकिन समय न मिल पाने के कारण नहीं लिखा पाया। इस दौरान मैंने गणतंत्र के बारे में अख़बारों में काफी कुछ पढ़ा। जितने लेख मैंने पढ़े उसमें से लगभग ९० फीसदी में सिर्फ संविधान के बारे में नकारात्मक बातों के अलावा और कुछ नहीं था। कोई संविधान को कोस रहा था, तो कोई सरकार को। इन लिखने वालों को कोई यह बताए कि क्या ये संविधान का पालन करते हैं? क्या इन्होंने संविधान को पढ़ा है? क्या ये संविधान में लिखे पहले तीन शब्दों का पालन करते हैं? खैर, ये तो लिखने वाले हैं। हम सारा दोष इन्हें ही क्यों दें। ज़रा उनसे भी जाकर पूछें जो संविधान के बारे में बिना कुछ जाने ही उसे देश में फैल रही अराजकता का दोषी ठहराते हैं।

अगर मैं कहूं कि मैंने संविधान को पढ़ा है, तो यह गलत होगा। लेकिन इसके बारे में जितना कुछ पढ़ा है उससे मैं कह सकता हूँ कि मुझे अपने देश के संविधान पर गर्व है। वह संविधान जिसका पूरी दुनिया लोहा मानती है। संविधान में लिखे पहले तीन शब्द "वी, द पीपुल" जिसका हिंदी में अर्थ है "हम लोग"। अब ज़रा इन शब्दों पर गौर करें, क्या अपने देश में इन तीन शब्दों का पालन होता है? शायद नहीं। मैं अपने उन बंधुओं से भी पूछना चाहता हूँ जिन्होंने अख़बारों में संविधान के बारे में नकारात्मक बातें लिखी हैं, क्या वे पूरा संविधान तो छोड़ो इन तीन शब्दों का पालन करते हैं? ज़रा सोचिए, जब कोई एक साधारण व्यक्ति किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति से मिलने जाता है, तो उनकी उस व्यक्ति के प्रति क्या प्रतिक्रिया होती है? साथ ही मैं अपने देश के उन नेताओं से भी पूछना चाहता हूँ, जो संविधान को बदलने की हिमाकत तो करते हैं, लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि संविधान बदलने के बाद वे नए संविधान का पालन करेंगे?

संविधान समिति के सदस्यों में से एक डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि कोई भी संविधान चाहें कितना भी अच्छा लिखा जाए, यदि उस देश की जनता उसका सही ढंग से पालन नहीं करेगी तो वह ख़राब हो जाएगा। और यदि संविधान कितना भी बुरा लिखा जाए, अगर उस देश की जनता उसका सही तरीके से पालन करे तो वह भी अच्छा हो जाता है। अब ज़रा सोचें कि आप चाय की दुकान पर चाय पी रहे हों और आपके पास फटे-गंदे कपड़ों में कोई बच्चा आकर खड़ा हो जाए, तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी? मुझे लगता है कि तब आप संविधान के पहले तीन शब्दों का भी पालन नहीं कर पाओगे। और यहीं से शुरू होता है संविधान का पालन। संविधान बनने से लेकर अब तक इसमें न जाने कितने सुधार हो चुके हैं, लेकिन पालन...?

हम देशवासियों की एक आदत है। हमारे पास जो होता है हम उस पर सब्र न करके उससे आगे की चाह रखते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है, लेकिन बुराई इस बात में है कि जो हमारे पास है हम उसका प्रयोग नहीं करते और यदि करते भी हैं तो सही ढंग से नहीं। ज़्यादा बातें न लिखते हुए मैं सिर्फ यही कहना चाहूँगा कि सबसे पहले हम संविधान के पहले तीन शब्दों का पालन करें उसके बाद पूरे संविधान का। संविधान को दोष देने से कुछ हासिल नहीं होगा। यदि कुछ बदलना है तो पहले अपने-आप को बदलो। फिर देखना ये सारी दुनिया खुद-ब-खुद बदल जाएगी।

Wednesday, January 20, 2010

...तो क्या मरते रहेंगे पत्रकार?


३० दिसंबर की रात को मैं रोजाना की तरह अपनी डेस्क पर बैठा ख़बरों को एडिट कर रहा था। कुछ देर के लिए मैंने लेटेस्ट ख़बर पढ़ने के लिए एक वेबसाइट खोली और उस पर ख़बरें पढ़ने लगा। अचानक मेरी नज़र एक ऐसी ख़बर पर पड़ी, जिसमें रिपोर्टिंग के दौरान विभिन्न क्षेत्रों में मारे गए पत्रकारों के बारे में लिखा हुआ था। कनाडा में पत्रकारों के संगठन कैनेडियन जर्नलिस्ट फॉर फ्री एक्सप्रेशन ने ३० दिसंबर को एक बयान जारी किया, जिसमें उसने बताया कि २००९ में पूरी दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में रिपोर्टिंग के दौरान सौ पत्रकार मारे गए, जबकि २००८ में ८७ पत्रकार मारे गए थे। ख़बर में दिया गया था कि २००९ में पूरे साल के दौरान नवंबर में ३१ पत्रकार फिलीपींस में हमलावरों द्वारा मारे गए।

कनाडाई जर्नलिस्ट ग्रुप के अध्यक्ष अनरेल्ड अंबर ने कहा कि जब भी किसी पत्रकार की हत्या का मामला सामने आता है तो उसके पीछे जो वजह निकलकर आती है वह यह होती है कि उन सभी पत्रकारों की जान केवल इसलिए गई क्योंकि वे किसी भ्रष्ट अधिकारी अथवा राजनीतिज्ञ के खिलाफ कोई अन्वेषणात्मक रिपोर्ट तैयार करने में लगे हुए थे, लेकिन फिलीपींस वाले मामले में सभी पत्रकार उस समय मारे गए जब वे एक संवाददाता सम्मेलन में बैठे हुए थे।

उन्होंने आगे कहा कि किसी भी देश में ऐसा मामला बहुत कम ही सामने आता है कि जब किसी हत्यारे को पत्रकार की हत्या करने के लिए जेल की सजा सुनाई जाती हो। साथ ही उम्मीद भी जताई कि इस वर्ष यानी २०१० में मारे जाने वाले पत्रकारों की संख्या कम रहेगी। अब सवाल यहाँ पर यह उठता है कि आखिर उन्होंने यह क्यों नहीं कहा कि अब आगे पत्रकार मारे न जाएं, इसके लिए पूरे विश्व को ज़रूरी कदम उठाने पड़ेंगे। लगता है कि श्री अंबर को इस बात का पूरा यकीन है कि पत्रकार तो मारे ही जाएंगे।

यहाँ पर एक बात सोचने वाली है कि अपनी जान जोखिम में डालकर लोगों के लिए ख़बरें देने वाले पत्रकारों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। एक पत्रकार के लिए जब बात युद्ध स्थल पर जाकर रिपोर्टिंग करने की होती है तो उस वक्त पत्रकार और सैनिक में कोई फर्क नहीं रह जाता। क्या पता कब और कहाँ से कोई गोली वहां पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार के सीने को पार करके निकल जाए। ऐसा अक्सर होता भी रहता है। लेकिन उस देश की सरकार चाहें वह भारत ही क्यों न हो, ऐसी कोई घोषणा क्यों नहीं करती जिससे कि युद्ध स्थल पार मारे गए पत्रकार के परिजनों को सांत्वना दे सके और उसके परिवार को दर-दर की ठोकरें न खानी पड़ें।

पत्रकार को समाज का आईना भी कहा जाता है। अब समय आ गया है कि इस आईने की देखभाल करने के लिए हर देश की सरकार को आगे आना होगा और उसे अहसास करना होगा कि हम आपके साथ हैं। साथ ही अन्य देशों की सरकारों से भी आग्रह करना होगा कि किसी भी देश के पत्रकार जब किसी भी देश में रिपोर्टिंग करने जाएं तो उन्हें समुचित व्यवस्थाएं उपलब्ध कराई जाएं।