Thursday, August 12, 2010

'बाबू जी, किताब ले लो'

कुछ दिनों पहले मैंने कुनाल खेमू अभिनीत फिल्म 'ट्रैफिक सिग्नल' देखी थीफिल्म की कहानी से प्रेरित अपने जीवन की एक घटना मैं आपसे यहां शेयर कर रहा हूंउम्मीद करता हूं कि आप लोगों को पसंद आएगी

दिल्ली में जितनी ज्यादा सर्दी पड़ती है, उतना ही गर्मी से भी दो-चार होना पड़ता है। मई-जून के महीने में जब आप दिल्ली की ब्लू लाइन बस में सफ़र करते हैं तो आपके हालात और बदतर हो जाते हैं। सबसे ज्यादा हालत तो तब ख़राब होती है, जब आपकी खचाखच भरी बस किसी रेड लाइट पर खड़ी हो जाए। ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ था। मई 2008 में रोजाना की तरह मैं ओखला मंडी स्थित अपने ऑफिस के लिए निकला। दोपहर का एक बज रहा था। मुनिरका से ओखला मंडी के लिए मैंने 507 पकड़ीअभी आईआईटी ही पहुंचा था कि वहां स्थित रेड लाइट पर लम्बा जाम मिल गयाहालांकि बस वहां से लेफ्ट टर्न लेती है, जिसके लिए रेड लाइट कोई मायने नहीं रखतीचूंकि जाम लम्बा था, तो इंतजार करना पड़ा

खिड़की के पास वाली सीट पर बैठा मैं बाहर की ओर देख रहा थाअचानक मेरी नज़र वहां पर किताबें बेच रहे एक लड़के पर पड़ीउसकी उम्र करीब दस-बारह की साल थीहाथों में ढेर सारी किताबेंशरीर पर नाममात्र के कपड़ेतभी एक चमचमाती हुई कार वहां पर आकर रुक गईवह दौड़ता हुआ उस कार के पास पहुंचा और बोला, 'बाबू जी, किताब ले लो।' उसके इतना कहते ही कार के अन्दर एसी में बैठे व्यक्ति ने उसकी तरफ बिना देखे ही मना कर दियामेरी नज़रें उस लड़के की ओर थींकुछ देर बाद वह लड़का वहां खड़ी अन्य कारों की तरफ गया और अपने हाथ में उठाए किताबों को बेचने की कोशिश में लग गया

उस समय फिल्म देखते समय मेरी आंखों में इस बच्चे का ख्याल आ गया। ऐसे न जाने कितने बच्चे ट्रैफिक सिग्नल पर अपनी जिंदगी इस प्रकार से गुजारते हैं। सरकारी आंकड़े गरीबी कम बताने की कितनी भी हिमाकत करें, लेकिन हकीकत किसी से भी छिपी हुई नहीं है। ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगने या अपना पेट पालने के लिए कुछ न कुछ बेचने वाले न जाने कितने बच्चों को हर साल सड़कों पर अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। दिल्ली को ही ले लीजिये, कुछ दिनों बाद यहां कॉमनवेल्थ गेम्स होने वाले हैं। विदेशी मेहमानों की नज़रों में देश की छवि साफ़-सुथरी बनी रहे इसके लिए यहां के भिखारियों को दिल्ली से बाहर किया जा रहा है। लेकिन सवाल यहां पर यह है कि इन्हें राजधानी से बाहर निकालने के बजाय इनकी तरफ ध्यान देकर इनके उत्थान के लिए कोई कार्य क्यों नहीं किया जा रहा है?

खैर, मैं यहां पर इस मामले में सरकार की आलोचना नहीं करुंगा, क्योंकि रेड लाइट पर अपनी जिंदगी गुज़ारने वालों की सरकार कितनी खबर लेती है यह बात किसी से नहीं छिपी है। मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूं। कुछ देर बाद सिग्नल ग्रीन हो गया और कुछ बसों के आगे निकलने के साथ ही मेरी बस भी अपने गंतव्य स्थान की ओर आगे बढ़ चुकी थी। मेडिकल से बस बदलकर मैं करीब एक घंटे में ऑफिस पहुंच चुका था। ऑफिस पहुंचने के बाद भी मेरी आंखों में किताब बेचने वाले का चेहरा घूम रहा था। वह लड़का जिसे शायद पढ़ना-लिखना न आता हो, वो सड़कों पर दूसरों को ज्ञान दे वाली किताबें बेच रहा था। वो किताबें जिन्हें हम ट्रैफिक सिग्नल पर बेचने वाले बच्चों से खरीदते हैं और घर जाकर मजे से पढ़ते हैं। लेकिन क्या कभी उस बच्चे के बारे में सोचते हैं जिससे हम वह किताब खरीदते हैं। वह बच्चा जो हमारे पास आकर कहता है,'बाबू जी किताब ले लो...'

Thursday, August 5, 2010

वो चुलबुली, चुलबुली ही रही


'यार हम लेट हो न हो जाएं।' अपने माथे से पसीना पौछ्ते हुए मेरी दोस्त ने मुझसे कहा। बात 2008 की उस समय की है जब मैं भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), नई दिल्ली में पढ़ता था। मेरी वह दोस्त दिल्ली यूनिवर्सिटी (साऊथ कैम्पस) से एमए कर रही थी। उसे थिएटर का भी शौक है। हम लोग नोर्थ कैम्पस जा रहे थे। 'भैया ऑटो थोड़ा तेज चलाओ न।' उसने झल्लाते हुए ऑटो चालक से कहा। उससे मेरा हाथ खींचा और मेरी कलाई पर बंधी घड़ी में समय देखा।

दिल्ली में उस समय वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी। या यह कहूं कि अभी भी है। उस समय उसके कॉलेज में एक नाटक का मंचन होना था। उसकी तैयारी के लिए वो मुझे अपने साथ नोर्थ कैम्पस ले जा रही थी। धौला कुआं से हमें फैकल्टी ऑफ़ आर्ट (नोर्थ कैम्पस) पहुंचने में करीब डेढ़ घंटा लगा। 'भैया कितने पैसे हुए?' उसने ऑटो चालक से पूछा। '65 रुपए', ऑटो वाले ने मीटर देखकर कहा। उसने ऑटो वाले को पैसे दिए और मेरा हाथ पकड़कर कॉलेज में ले गई।

'हाय सीमा, यार तूने आने में कितनी देर कर दी। जरा घड़ी की तरफ देख दो बज गए हैं। और तुझे पता है न कि सर्दियों में दो बजे शाम जैसा समय हो जाता है। हम तेरा यहां पर कितनी देर से इंतजार कर रहे हैं।' वहां इंतजार कर रही उसकी एक दोस्त ने उस पर थोडा गुस्सा करते हुए कहा। हां, सीमा नाम है उसका। 'सॉरी यार, थोड़ा लेट हो गई। अच्छा देखो मेरे साथ कौन आया है?' फिर क्या था, निकल गया करीब आधा घंटा एक-दूसरे के परिचय में। उसके दोस्तों के साथ उसके नाटक की रिहर्सल शुरू हुई। हिन्दू-मुस्लिम एकता पर आधारित था उसका वह नाटक। मुझे काफी पसंद आया। शाम को करीब सात बजे रिहर्सल ख़त्म हुई। 'चलें सीमा?' मैंने उससे घर चलने के लिए कहा। 'नहीं, अभी कोई नहीं जाएगा। थोड़ी भूख लगी है, कुछ खाते हैं।' उसकी एक दोस्त ने वहां पर मौजूद सभी दोस्तों से कहा।

थोड़ी सी पेट-पूजा करने के बाद हम दोनों घर की और निकल लिए। दरअसल मेरा घर उसके घर के रास्ते में ही पड़ता था। हम दोनों मेट्रो स्टेशन पहुंचे। केन्द्रीय सचिवालय का टोकन लेकर मेट्रो का इंतजार करने लगे। कुछ देर बाद मेट्रो आई और हम दोनों उसमें बैठ गए। इस समय करीब आठ बजे का समय था। ट्रेन में उसकी चुलबुली बातें शुरू हो गईं। कुछ देर बार हम केन्द्रीय सचिवालय पहुंच गए। वहां से हम दोनों को रूट नंबर 680 की बस पकड़नी थी। 'राजेश, भूख लगी है। कुछ खाते हैं', बस स्टैंड पर बस का इंतजार करते हुए उसने कहा। वहां पर हमने दो-दो समौसे खाए। कुछ देर बाद हमारी बस आ गई और हम बस में बैठकर घर के लिए चल दिए।

भोपाल में नौकरी के दौरान पिछले साल नवम्बर में किसी काम से मैं दिल्ली अपने घर गया था। उसे बताया नहीं। जब मैं लौटकर आया तो सुबह-सुबह उसका फ़ोन आ गया। मैंने बातों-बातों में उसे बता दिया कि मैं घर से आज सुबह ही आया हूं। फिर क्या था, बरस पड़ी मेरे ऊपर। जमकर गुस्सा हुई कि मैंने उसे नहीं बताया। आज उससे अलग हुए एक साल से ज्यादा हो गया है। लेकिन उसे जब भी कोई ख़ुशी होती है, उसे वो मुझसे ज़रूर शेयर करती है। इसी साल उसका जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी में पीएचडी में नंबर आ गया है और साथ ही उसे एक अख़बार में नौकरी भी मिल गई है। जब उसने मुझे फोन पर बताया तब वह बहुत खुश थी। मुझे भी उतनी ही ख़ुशी थी कि मेरी एक दोस्त अपने मकसद में कामयाब हो गई।

मुझे आज भी उसकी वो चुलबुली बातें याद आती हैं। आज भी जब वो मुझे फोन करती है, तो ऐसा लगता है कि वो मेरे सामने है। आज भी वो ऐसी ही चुलबुली है, जैसी पहले थी।