Friday, January 29, 2010

संविधान को कोसने वाले अपने गिरेबां में झांकें

सोच रहा था कि २६ जनवरी को गणतंत्र के ६० वर्ष पूरे होने पर कुछ लिखुंगा। लेकिन समय न मिल पाने के कारण नहीं लिखा पाया। इस दौरान मैंने गणतंत्र के बारे में अख़बारों में काफी कुछ पढ़ा। जितने लेख मैंने पढ़े उसमें से लगभग ९० फीसदी में सिर्फ संविधान के बारे में नकारात्मक बातों के अलावा और कुछ नहीं था। कोई संविधान को कोस रहा था, तो कोई सरकार को। इन लिखने वालों को कोई यह बताए कि क्या ये संविधान का पालन करते हैं? क्या इन्होंने संविधान को पढ़ा है? क्या ये संविधान में लिखे पहले तीन शब्दों का पालन करते हैं? खैर, ये तो लिखने वाले हैं। हम सारा दोष इन्हें ही क्यों दें। ज़रा उनसे भी जाकर पूछें जो संविधान के बारे में बिना कुछ जाने ही उसे देश में फैल रही अराजकता का दोषी ठहराते हैं।

अगर मैं कहूं कि मैंने संविधान को पढ़ा है, तो यह गलत होगा। लेकिन इसके बारे में जितना कुछ पढ़ा है उससे मैं कह सकता हूँ कि मुझे अपने देश के संविधान पर गर्व है। वह संविधान जिसका पूरी दुनिया लोहा मानती है। संविधान में लिखे पहले तीन शब्द "वी, द पीपुल" जिसका हिंदी में अर्थ है "हम लोग"। अब ज़रा इन शब्दों पर गौर करें, क्या अपने देश में इन तीन शब्दों का पालन होता है? शायद नहीं। मैं अपने उन बंधुओं से भी पूछना चाहता हूँ जिन्होंने अख़बारों में संविधान के बारे में नकारात्मक बातें लिखी हैं, क्या वे पूरा संविधान तो छोड़ो इन तीन शब्दों का पालन करते हैं? ज़रा सोचिए, जब कोई एक साधारण व्यक्ति किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति से मिलने जाता है, तो उनकी उस व्यक्ति के प्रति क्या प्रतिक्रिया होती है? साथ ही मैं अपने देश के उन नेताओं से भी पूछना चाहता हूँ, जो संविधान को बदलने की हिमाकत तो करते हैं, लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि संविधान बदलने के बाद वे नए संविधान का पालन करेंगे?

संविधान समिति के सदस्यों में से एक डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि कोई भी संविधान चाहें कितना भी अच्छा लिखा जाए, यदि उस देश की जनता उसका सही ढंग से पालन नहीं करेगी तो वह ख़राब हो जाएगा। और यदि संविधान कितना भी बुरा लिखा जाए, अगर उस देश की जनता उसका सही तरीके से पालन करे तो वह भी अच्छा हो जाता है। अब ज़रा सोचें कि आप चाय की दुकान पर चाय पी रहे हों और आपके पास फटे-गंदे कपड़ों में कोई बच्चा आकर खड़ा हो जाए, तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी? मुझे लगता है कि तब आप संविधान के पहले तीन शब्दों का भी पालन नहीं कर पाओगे। और यहीं से शुरू होता है संविधान का पालन। संविधान बनने से लेकर अब तक इसमें न जाने कितने सुधार हो चुके हैं, लेकिन पालन...?

हम देशवासियों की एक आदत है। हमारे पास जो होता है हम उस पर सब्र न करके उससे आगे की चाह रखते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है, लेकिन बुराई इस बात में है कि जो हमारे पास है हम उसका प्रयोग नहीं करते और यदि करते भी हैं तो सही ढंग से नहीं। ज़्यादा बातें न लिखते हुए मैं सिर्फ यही कहना चाहूँगा कि सबसे पहले हम संविधान के पहले तीन शब्दों का पालन करें उसके बाद पूरे संविधान का। संविधान को दोष देने से कुछ हासिल नहीं होगा। यदि कुछ बदलना है तो पहले अपने-आप को बदलो। फिर देखना ये सारी दुनिया खुद-ब-खुद बदल जाएगी।

Wednesday, January 20, 2010

...तो क्या मरते रहेंगे पत्रकार?


३० दिसंबर की रात को मैं रोजाना की तरह अपनी डेस्क पर बैठा ख़बरों को एडिट कर रहा था। कुछ देर के लिए मैंने लेटेस्ट ख़बर पढ़ने के लिए एक वेबसाइट खोली और उस पर ख़बरें पढ़ने लगा। अचानक मेरी नज़र एक ऐसी ख़बर पर पड़ी, जिसमें रिपोर्टिंग के दौरान विभिन्न क्षेत्रों में मारे गए पत्रकारों के बारे में लिखा हुआ था। कनाडा में पत्रकारों के संगठन कैनेडियन जर्नलिस्ट फॉर फ्री एक्सप्रेशन ने ३० दिसंबर को एक बयान जारी किया, जिसमें उसने बताया कि २००९ में पूरी दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में रिपोर्टिंग के दौरान सौ पत्रकार मारे गए, जबकि २००८ में ८७ पत्रकार मारे गए थे। ख़बर में दिया गया था कि २००९ में पूरे साल के दौरान नवंबर में ३१ पत्रकार फिलीपींस में हमलावरों द्वारा मारे गए।

कनाडाई जर्नलिस्ट ग्रुप के अध्यक्ष अनरेल्ड अंबर ने कहा कि जब भी किसी पत्रकार की हत्या का मामला सामने आता है तो उसके पीछे जो वजह निकलकर आती है वह यह होती है कि उन सभी पत्रकारों की जान केवल इसलिए गई क्योंकि वे किसी भ्रष्ट अधिकारी अथवा राजनीतिज्ञ के खिलाफ कोई अन्वेषणात्मक रिपोर्ट तैयार करने में लगे हुए थे, लेकिन फिलीपींस वाले मामले में सभी पत्रकार उस समय मारे गए जब वे एक संवाददाता सम्मेलन में बैठे हुए थे।

उन्होंने आगे कहा कि किसी भी देश में ऐसा मामला बहुत कम ही सामने आता है कि जब किसी हत्यारे को पत्रकार की हत्या करने के लिए जेल की सजा सुनाई जाती हो। साथ ही उम्मीद भी जताई कि इस वर्ष यानी २०१० में मारे जाने वाले पत्रकारों की संख्या कम रहेगी। अब सवाल यहाँ पर यह उठता है कि आखिर उन्होंने यह क्यों नहीं कहा कि अब आगे पत्रकार मारे न जाएं, इसके लिए पूरे विश्व को ज़रूरी कदम उठाने पड़ेंगे। लगता है कि श्री अंबर को इस बात का पूरा यकीन है कि पत्रकार तो मारे ही जाएंगे।

यहाँ पर एक बात सोचने वाली है कि अपनी जान जोखिम में डालकर लोगों के लिए ख़बरें देने वाले पत्रकारों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। एक पत्रकार के लिए जब बात युद्ध स्थल पर जाकर रिपोर्टिंग करने की होती है तो उस वक्त पत्रकार और सैनिक में कोई फर्क नहीं रह जाता। क्या पता कब और कहाँ से कोई गोली वहां पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार के सीने को पार करके निकल जाए। ऐसा अक्सर होता भी रहता है। लेकिन उस देश की सरकार चाहें वह भारत ही क्यों न हो, ऐसी कोई घोषणा क्यों नहीं करती जिससे कि युद्ध स्थल पार मारे गए पत्रकार के परिजनों को सांत्वना दे सके और उसके परिवार को दर-दर की ठोकरें न खानी पड़ें।

पत्रकार को समाज का आईना भी कहा जाता है। अब समय आ गया है कि इस आईने की देखभाल करने के लिए हर देश की सरकार को आगे आना होगा और उसे अहसास करना होगा कि हम आपके साथ हैं। साथ ही अन्य देशों की सरकारों से भी आग्रह करना होगा कि किसी भी देश के पत्रकार जब किसी भी देश में रिपोर्टिंग करने जाएं तो उन्हें समुचित व्यवस्थाएं उपलब्ध कराई जाएं।