Tuesday, January 6, 2009

डाक बाबू कहाँ हो

१०-१२ साल की उम्र के मुझे आज भी वे दिन याद हैं जब मैं अपनी नानी के घर जाया करता था। नानी के घर के सामने वाले घर की महिला जब मुझे बुलाकर सऊदी अरब में नौकरी करने वाले अपने पति के लिए चिट्ठियां लिखवाया करती थी। मैं बहुत खुश होकर उसकी चिट्ठी लिखा करता था। यही नहीं जब कभी मेरे घर की गली में डाकिया आता था तो उसे देखकर मन खुशी से उछल जाता था कि शायद उसके पास हमारे लिए भी कोई चिट्ठी हो! और फिल्मों में भी डाकिया जब किसी कि चिट्ठी पढ़कर सुनाता था तो उसके आस-पास लगी भीड़ को देखकर मन रोमांचित हो उठता था। सुख-दुःख का संदेश लेकर आने वाले डाकिया को लोग एक अतिथि का दर्जा देते थे। लेकिन वह अतिथि आज कहाँ है?

तेजी से बढ़ रही सूचना क्रांति ने आज डाकिया के रास्तों को कम कर दिया है। मोबाइल फोन, ई-मेल आदि ने आज चिट्ठियों के अस्तित्व को लगभग समाप्त कर दिया है। आज अधिकतर चिट्ठियां या कूरियर केवल नौकरियों से सम्बंधित दस्तावेज या पार्सल ही आते हैं। लेकिन उनको लाने वाले जिन्हें हम डाकिया या कूरियर कम्पनी का कर्मचारी कहते हैं के प्रति वो अतिथि सत्कार नहीं रहा है। सूचना क्रांति ने डाकिया और आम आदमी के बीच वो दूरी बढ़ा दी है जिसकी कम होने की उम्मीदें असंभव सी लग रहीं हैं। लेकिन सच यही है कि पल भर में पहुँचने वाले संदेश आज लेट-लतीफ़ चिट्ठियों पर भारी पड़ रहें है। पुरानी फिल्मों में सुनाई पड़ने वाले गाने जैसे चिट्ठी आई है, वतन से चिट्ठी आई है....., डाकिया डाक लाया.... आदि आज कि फिल्मों से गायब हो चुके हैं। या कहें कि मर चुके हैं। यही नहीं पैरों में चप्पल, कंधे पर थैला, सर पर टोपी और हाथ में साईकिल लेकर चलने वाला डाकिया आज समाज से भी लगभग गायब है। आज कि युवा पीढ़ी सूचना के इस प्रवाह में तेजी से बह रही है। पल भर में संदेश भेजना और प्राप्त करना उसकी आदत बन गई है वह संदेशों का इन्तजार नहीं करती।

भाग-दौड़ भारी इस जिन्दगी में संदेशों ने भी रफ़्तार पकड़ ली है जो कि जिन्दगी कि रफ़्तार से दो कदम आगे चल रहें हैं। लेकिन अंग्रेजी में एक कहावत है,"नो लोंगर नाओ, गोन आर दी डेस।" और यह कहावत ठीक ही है। हो सकता है कि आगे चलकर आने वाली पीढ़ी को शायद डाकिया के बारे में पता ही ना रहे। डाकिया के थैले से लगातार कम हो रहीं चिट्ठियां कहने को विवश करती हैं,"डाकिया बाबू कहाँ हो?" आज भी आँखें गढ़ाए मैं उसी बड़े-बड़े चश्मे वाले डाकिया का इन्तजार करता हूँ। यह इन्तजार है कि लगातार बढ़ता ही जाता है और शायद ये इन्तजार अब इन्तजार ही रहे। मैं अपने अन्दर से उस डाकिया की छवि नहीं भूल सकता। और आज भी कभी-कभी अचानक उसे याद कर लेता हूँ।

कविता

समीर
वो लहराती पेड़ों पर
मचलती खलिहानों में
पूछता उससे
बता तेरा बसेरा कहाँ है?
नित्य आती मेरे पास
निर्जन में
पूछता उससे
बता तेरी डगर क्या है?
मैं अनायास ही उससे कहता
तुम्हारा वरण गान
मधु पूरित है
और तुम्हारा कोमल तन
विश्वस्रज है
तुम्हारा क्षितिज बदन
निशा शयन में
कल्पना की गहराई में
शत-शत गंध वाला होता है
जिसमे मुझे विश्व-वंदन-सार नजर आता है
हे नाम-शोभन समीर
अब तुम बताओ मुझे
उर्ध्व नभ-नग में
तुम्हारा निर्गमन द्वार कहाँ है?
तुम अतुल हो
तुम श्री पावन हो
हे सरोज-दाम
तुम ज्योति सर हो
मेरे चिन्त्य नयनों में
ख्यालों के स्वपन दिखाने वाली
हे रत्न चेतन, हे तापप्रशमन
ह्र्यदय स्पर्शक समीर
अब तो बता दो
तुम्हारा बसेरा कहाँ है?
तुम्हारा बसेरा कहाँ है?

Sunday, January 4, 2009

जूते-जूते का फर्क

जब कभी हम छोटे-छोटे बच्चों को लड़ते देखते हैं तो उस लड़ाई में कभी-कभी बच्चों द्वारा एक दूसरे पर जूता फेंकते हुए भी देख लेते हैं। जूता फेंकते वक्त वे बच्चे उस जूते की अहमियत भूल जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि वे जूते किस कम्पनी के हैं? शायद तुर्की की बेदान शू-कम्पनी के तो नहीं। और यदि हों भी तो उन बच्चों पर क्या फर्क पड़ता है। लेकिन इराकी पत्रकार मुंतजर अल जैदी द्वारा मॉडल नम्बर २७१ के इस कम्पनी के जूते ने पूरी दुनिया में हल्ला रखा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति बुश पर फैंके गए इस जूते से वो फर्क आ गया है जो बच्चों ने कभी अपनी लड़ाई में एक-दूसरे पर फैंके थे। खैर, वो तो बच्चें हैं लेकिन जैदी तो नहीं! वह उससे क्या सिद्ध करना चाहते थे? कहीं यह तो नहीं कि कम्पनी का यह जूता कितना मजबूत है? उनकी इस टेस्टिंग में वे जूते इतने मजबूत निकले कि शू-कम्पनी के मालिक रमजान बेदान को अपनी कम्पनी में १०० अतिरिक्त कर्मचारी रखने पड़े। आख़िर मॉडल नम्बर २७१ के उस जूते की जो बुश पर फैंका गया था मांग जो बढ़ गई। लेकिन बच्चों के जूते बनाने वाली कम्पनी पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह तो जूते-जूते का फर्क है। इसी बात पर मैंने अपने एक दोस्त से हँसते हुए पूछा,"यार क्या तेरा जूता बेदान कम्पनी का है?" तो उसने भी हँसते हुए जबाव दिया,"क्या अमेरिकी राष्ट्रपति बुश अपने देश में आ रहें है?" उसका यह जबाव सुनते ही मैं चौंक गया। फिरउसने अपने जबाव को स्पष्ट करते हुए बताया कि मैं तो सिर्फ़ यह देखना चाहता हूँ कि बुश के आने पर होने वाली प्रेस वार्ता या किसी मीटिंग में कितने लोग जूते पहन कर आते हैं? उसकी यह बात सुन कर मैं मन ही मन मुस्कुराया।
खैर जो भी हो मुंतजर अल जैदी द्वारा बुश पर फैंका गया जूता ऐसे चला कि पूरी दुनिया में राजनीतिक और मीडिया सड़कों पर ट्रैफिक लग गया। जूते कि महिमा जो निकली। कुछ भी हो जूता तो होता ही चलने के लिए है। पैरों में पहनो तो भी चलता है और हाथ में ले लो तो भी। यही नहीं आजकल तो राजनेता भी अपनी राजनीति चलाने के लिए भी जूतों का सहारा लेते हैं। जैसे बसपा प्रमुख मायावती ने लिया था," तिलक,तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार।" यही नहीं राजनीतिक पार्टियों कि सभाओं के दौरान तो कभी-कभी जूता ऐसे चलता है कि जैसे मानो इसका समझौता राजधानी एक्सप्रैस से हो गया हो। ताबड़-तोड़ जूतों की लड़ाई होती है लेकिन वे जूते किस्मत के मारे होते हैं जिन्हें जैदी के जूतों के बराबर प्रसिद्धि नहीं मिलती।