Friday, August 22, 2014

स्कूल और जिंदगी का कैमिकल लोचा

कैमिकल यानी एसिड किस चिड़िया का नाम होता है, बचपन में इससे बिल्कुल अनजान थे। प्राइमरी स्कूल की आजादी से सेकेंडरी स्कूल के सख्त नियमों में कैद हो चुके थे। पानी पीने के लिए क्लास से कुछ दूर लगे हैंडपंप के पास जाना पड़ता था। यह हैंडपंप 11वीं-12वीं क्लास के स्टूडेंट्स की कैमिस्ट्री लैब के सामने स्थित था। जैसे ही उस हैंडपंप पर पानी पीने के लिए जाते थे, ऐसा लगता था जैसे मानों किसी ने नाक में छुरी डाल दी हो। सांस लेने और पानी पीने के लिए सिर्फ मुंह ही सहारा होता था। लैब के दरवाजे और खुली खिड़कियों से अंदर झांककर यह देखने की कई बार कोशिश की कि आखिर नाक में छुरी जैसी चलने वाली बदबू आने का क्या कारण है। लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात जैसा रहा। कुछ दोस्त यह कहते थे कि यह कैमिस्ट्री लैब है। यहां बड़ी क्लास के स्टूडेंट प्रयोग करने आते हैं। मन में यही था कि हम कब बड़े होंगे और इस लैब में आकर इस बदबू का कारण खोजेंगे। लेकिन सोचते थे कि बेटा इसके लिए कम से कम पांच साल इंतजार करना पड़ेगा।

तीन साल बाद कक्षा नौवीं में आने के दौरान आर्ट्स, कॉमर्स और साइंस ग्रुप में से किसी एक का चुनाव करना था। विजन साफ था...साइंस। क्लासें लगना शुरू हो गई थीं। फिजिक्स और कैमिस्ट्री पढ़ाने की जिम्मेदारी एक ही टीचर को मिली थी।

‘कल सभी बच्चे प्रैक्टिकल की बुक ले आएं। परसों से प्रैक्टिकल क्लासें चलेंगी। और हां, ये क्लासें लैब में होंगी’, साइंस पढ़ाने वाले टीचर ने क्लास में बैठे सभी स्टूडेंट्स से कहा।

सर की यह बात सुनकर उत्सुकता तो बढ़ी थी, लेकिन उतनी नहीं थी जितनी 11वीं-12वीं की कैमिस्ट्री लैब में जाने की थी। 9वीं-10वीं क्लास के स्टूडेंट्स की प्रैक्टिकल लैब 11वीं-12वीं क्लास के स्टूडेंट्स की प्रैक्टिकल लैब के मुकाबले छोटी थी। लेकिन उत्सुकता थी लैब और एसिड नामक चिड़िया को देखने की।

‘यार ये दिल (डीआईएल) और कॉन्स (सीओएन) का मतलब क्या है?’, एसिड नामक चिड़ियाओं को देखने के बाद मैंने अपने ही एक दोस्त से सवाल पूछा।

जब मैं पहली बार लैब में घुसा था, तो वहां पारदर्शी कांच की बहुत सारी बोतलों में भिन्न-भिन्न एसिड भरे हुए थे। मैं सिर्फ कुछ एसिडों के बारे में जानता था। अधिकतर का मैंने नाम तक नहीं सुना था। इनमें से कुछ बोतलों पर एसिड के नाम के साथ अंग्रेजी में डीआईएल और सीओएन लिखा हुआ था। दरअसल एसिड दो रूप में होता है- तनु और सांद्र। तनु को अंग्रेजी में डायल्यूट और सांद्र को अंग्रेजी में कन्संट्रेड कहते हैं। डीआईएल डायल्यूट की शॉर्ट फॉर्म और कॉन्स कन्संट्रेड की शॉर्ट फॉर्म होती है। दिल और कॉन्स के बारे में मेरे दोस्त को भी कुछ नहीं पता था। आखिर कुछ समय बाद मैंने इसके बारे में पता लगा लिया।

एसिड नामक इन चिड़ियाओं को छूने में भी डर लग रहा था। सुना और पढ़ा था कि अगर एसिड नामक चिड़िया काट ले, तो वह स्थान जल जाता है। मुझे अपनी जिंदगी के जलने से डर लग रहा था। कक्षा छठी में पढ़ने के दौरान आने वाली बदबू के बारे में मैं 11वीं में उस लैब में आने से पहले ही जान गया था। मैं समझ गया था कि एसिड नामक चिड़िया से आने वाली यह बदबू आगे चलकर जिंदगी को एक संदेश देने जा रही थी।

अब वर्तमान में आते हैं-
उम्र का 30वां पड़ाव पार करने के बाद कुछ चीजों का अहसास होने लगा है। बचपन में डराने वाला एसिड आज जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया है, या ये कहें कि जिंदगी कैमिकल लोचा हो गई है। एसिड का नाम सुनते ही कई बार इसकी शिकार बन चुकीं लक्ष्मी जैसी कई युवतियों का चेहरा सामने आ जाता है। संघर्ष से शुरू हुई जिंदगी आज भी संघर्ष पर ही है। लेकिन न हारने वाली हिम्मत शरीर को नई ऊर्जा दे जाती है। जब जिंदगी जीने का नाम है, तो समाज से छिपकर क्यों जीएं। लोगों को प्रेरित करें कि वो इन बुराइयों से लड़ें और जिंदगी को नए अंदाज में खुलकर जीएं।

Wednesday, August 6, 2014

अलविदा प्राण साहब...दिल में रहेंगे चाचा चौधरी और साबू

आंखें भर आने का राज किसी को नहीं पता था। आॅफिस में साथियों की बातें सिर्फ सुन रहा था। दिमाग में कार्टूनिस्ट प्राण साहब के बनाए हुए किरदार चाचा चौधरी, साबू, बिल्लू, पिंकी, रॉकेट आदि चल रहे थे। नजर सामने रखे कंप्यूटर पर थी। वह कंप्यूटर, जिसके बारे में आज से करीब 20 साल पहले प्राण साहब की ही कॉमिक्सों में सुना था। प्राण साहब की उन कॉमिक्सों के बीच कहीं लिखा होता था, ‘चाचा चौधरी का दिमाग कंप्यूटर से भी तेज चलता है।’ उस समय नहीं पता था कि कंप्यूटर किस बला का नाम है। बच्चा बुद्धि यही सोचती थी कि शायद फर्राटे मारने वाली कोई कार होगी। आज उसी कंप्यूटर के सामने प्राण साहब के निधन की खबर पढ़कर दिल भर आया।

प्राण साहब, पिछली बार आपकी कॉमिक्स कब पढ़ी थी, यह तो याद नहीं, लेकिन इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग की दुनिया में आपका जिक्र अक्सर हो जाता है। बचपन में जब कभी अखबार में ज्वालामुखी के फटने की खबर पढ़ते थे, तो लगता था कि साबू को गुस्सा आ गया है। बारिश के मौसम में जब साबू चाचा चौधरी को कंधे पर बिठाकर ले जाता था, तो उस समय चाचा चौधरी बादलों के ऊपर होते थे और बारिश उनके नीचे। अपने बचपन की टोली में कई बार इस बात का भी जिक्र छेड़ देते थे कि एक दिन हम भी साबू के कंधों पर बैठेंगे।

आज जब भी मंगल ग्रह या ज्यूपिटर से संबंधित कोई खबर पढ़ता हूं, तो लगता है कि वहां साबू होगा। यह जानते हुए भी कि आज बचपन की उस नादान उम्र से काफी आगे निकल आया हूं। लेकिन सोचता हूं...क्या हुआ, बचपन को याद तो किया जा सकता है।

स्कूल और घर में अक्सर लोग पढ़ाकू समझते थे। लेकिन हम कितने पढ़ाकू थे, यह बस हम ही जानते थे। स्कूल की किताबों के बीच में रखी चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी आदि की कॉमिक्सों को पढ़कर हमारा मुस्कुराना और हंसना हमारे लिए सबसे बड़ी दौलत हुआ करती थी। 50 पैसे में सुबह से लेकर शाम तक और एक रुपए में पूरे दिन के लिए आपकी कॉमिक्स किराए पर लाते थे। आपकी उन कॉमिक्सों को रखने की जगह हमारा स्कूल का बस्ता होता था। रात को उसमें कोई कॉमिक्स नहीं रखते थे। डर रहता था कि कहीं मम्मी ने देख ली, तो फिर हमारी खेर नहीं।

प्राण साहब, आपके इस दुनिया से जाने के बाद अब चाचा चौधरी का दिमाग कंप्यूटर से तेज नहीं चलेगा, साबू को गुस्सा नहीं आएगा, राका फिर से जिंदा नहीं होगा। प्राण साहब, हमारे बचपन को नई खुशी देने और उसे और मनोरंजक बनाने के लिए शुक्रिया शब्द बहुत छोटा है। आप हमारे दिल में थे, दिल में हो और दिल में रहोगे।

...अलविदा प्राण साहब।