Sunday, December 6, 2009

आंखों में दिखा त्रासदी का ग़म

दीपावली की छुट्टियाँ ख़त्म करके वापस भोपाल जाने के लिए मैं नई दिल्ली के निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर बैठा हुआ था। मेरा भोपाल एक्सप्रेस ट्रेन में रिजर्वेशन था। स्टेशन पर मैं शाम छः बजे ही पहुँच गया था, जबकि ट्रेन का समय नौ बजे का था। स्टेशन पर बैठा हुआ मैं अपने मोबाइल पर गाने सुन रहा था। करीब एक घंटे बाद कुछ लोग भी मेरे पास ही आकर बैठ गए। उनसे बात करने पर पता चला कि उन्हें भी भोपाल एक्सप्रेस से भोपाल जाना था। वो दिल्ली में किसी कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आए थे।

बातों-बातों में मैंने उनसे तीन दिसंबर १९८४ को भोपाल में हुई गैस त्रासदी के बारे में पूछना शुरू कर दिया। जिस व्यक्ति से मैं बातें कर रहा था उसकी उम्र करीब ५० साल की थी। जब उसने मुझे उस रात के बारे में बताना शुरू किया तो लगा कि वो रात किस प्रकार क़यामत की रात बनकर आई होगी। जब वह व्यक्ति मुझे उस त्रासदी के बारे में बता रहा था, तब उसकी आंखों में मुझे त्रासदी का ग़म साफ़ दिखाई दे रहा था। उस त्रासदी के बारे में बताते-बताते एक समय ऐसा भी आया जब उसकी आँखें नम हो गई थीं। एक पल के लिए मुझे लगा कि शायद यह व्यक्ति उस हादसे में किसी अपने को खो चुका है, लेकिन मैं ग़लत था।

दो घंटे तक उस व्यक्ति ने मुझे गैस त्रासदी कि इतनी बातें बता दीं थी कि मेरी आँखें भी नम हो गईं थीं। दो घंटे का समय कब बीत गया मुझे पता भी न चला। कुछ समय बाद मेरी ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर आ गई थी। मैं ट्रेन में बैठ गया। दिल्ली से भोपाल तक शुरू के करीब दो-तीन घंटे तक मैं उस व्यक्ति और गैस त्रासदी के बारे में सोचता रहा।

तीन दिसंबर २००९ को इस गैस त्रासदी के २५ साल पूरे हो चुके थे। इस दिन मैं भोपाल में ही था। मुझे महसूस होने लगा था कि इस त्रासदी से यहाँ के लोगों में कितना गम है। दैनिक भास्कर में कम करते हुए तब मैंने यहाँ के कुछ लोगों से इस बारे में पूछा तो उन लोगों ने उस काली रात का पूरा सच मेरे सामने रख दिया। इस दिन जिस प्रकार लोगों ने आँखों में आंसू लेकर सड़कों पर अपनी नाराज़गी दिखाई, वो जायज़ थी। मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि ऐसी काली रात किसी के भी जीवन में दोबारा न आए.

Saturday, November 14, 2009

कौन लिख रहा है इन नौनिहालों की तकदीर

अगर वास्तव में बच्चे किसी देश का भविष्य है तो भारत का भविष्य अंधकारमय है। भविष्य का भारत अनपढ़, दुर्बल और लाचार है। कोई भी इनका अपहरण, अंग-भंग, यौन शोषण कर सकता है और बंधुआ बना सकता है।हर साल बच्चों के प्रिय चाचा जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। बच्चों के लिए कार्यक्रम आयोजित किए जाते है। बड़ी-बड़ी बातें की जाती है, लेकिन साल-दर-साल उनकी स्थिति बद से बदतर होती जा रही है।

भारत में बाल-मजदूरी पर प्रतिबंध लगे 23 साल हो गए है, लेकिन विश्व में सबसे ज्यादा बाल मजदूर यहीं हैं। इनकी संख्या करीब छह करोड़ है। खदानों, कारखानों, चाय बागानों, होटलों, ढाबों, दुकानों आदि हर जगह इन्हें कमरतोड़ मेहनत करते हुए देखा जा सकता है। कच्ची उम्र में काम के बोझ ने इनके चेहरे से मासूमियत नोंच ली है। इनमें से अधिकतर बच्चे शिक्षा से दूर खतरनाक और विपरीत स्थितियों में काम कर रहे है। उन्हें हिंसा और शोषण का सामना करना पड़ता है। इनमें से कई तो मानसिक बीमारियों के भी शिकार हो जाते हैं। बचपन खो करके भी इन्हे ढग से मजदूरी नहीं मिलती।

भारत में अशिक्षा, बेरोजगारी और असंतुलित विकास के कारण बच्चों से उनका बचपन छीनकर काम की भट्ठी में झोंक दिया जाता है। इसलिए जब तक इन समस्याओं का हल नहीं किया जाएगा, तब तक बाल श्रम को रोकना असंभव है। ऐसा प्रावधान होना चाहिए कि सभी बच्चों को मुफ्त और बेहतर शिक्षा मिल सके। हर परिवार को कम से कम रोजगार, भोजन और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हों। साथ ही बाल-मजदूरी से जुड़े सभी कानून और सामाजिक-कल्याण की योजनाएं कारगर ढंग से लागू हों।

देश में बच्चों के स्वास्थ्य की स्थिति भी बेहद चिंताजनक है। ब्रिटेन की एक संस्था के सर्वे के अनुसार पूरी दुनिया में जितने कुपोषित बच्चे हैं, उनकी एक तिहाई संख्या भारत में है। यहा तीन साल तक के कम से कम 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इसके अलावा प्रतिदिन औसतन 6,000 बच्चों की मौत होती है। इनमें 2,000 से लेकर 3,000 बच्चों की मौत कुपोषण के कारण होती है। भारत में बच्चों का गायब होना भी एक बड़ी समस्या है। इनमें से अधिकतर बच्चों को संगठित गिरोहों द्वारा चुराया जाता है। ये गिरोह इन मासूमों से भीख मंगवाते हैं। अब तो मासूम बच्चों से छोटे-मोटे अपराध भी कराए जाने लगे है। पिछले एक साल में दिल्ली मे दो हजार से ज्यादा बच्चे गायब हुए। इन्हें कभी तलाश ही नहीं किया गया, क्योंकि ये सभी बच्चे बेहद गरीब घरों के थे।

यह स्थिति तो देश की राजधानी दिल्ली की है। पूरे देश की क्या स्थिति होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अगर गायब होने वाला बच्चा समृद्ध परिवार का होता है तो शासन और प्रशासन में ऊपर से लेकर नीचे तक हड़कंप मच जाता है। यदि बच्चा गरीब घर से ताल्लुक रखता है तो पुलिस रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करती। पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई थी कि वह सिर्फ अमीरों के बच्चों को तलाशने में तत्परता दिखाती है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार 80 प्रतिशत पुलिस वाले गुमशुदा बच्चों की तलाश में रुचि नहीं लेते। भारत में हर साल लगभग 45 हजार बच्चे गायब होते हैं और इनमें से 11 हजार बच्चे कभी नहीं मिलते। संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव में 2007 मे भारत में बाल अधिकार संरक्षण आयोग गठित किया गया था। आयोग ने गुमशुदा बच्चों के मामले मे राच्य सरकारों को कई सुझाव और निर्देश दिए थे। इनमें से एक गुम होने वाले हर बच्चे की एफआईआर तुरंत दर्ज किए जाने के संदर्भ में था, लेकिन सच्चाई सबके सामने है।

बाल विवाह एक और बड़ी समस्या है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में जिन लड़कियों की बचपन में शादी कर दी जाती है, उनमें एक तिहाई से भी ज्यादा भारत से हैं। सालभर में लाखों बच्चिया इसके लिए अभिशप्त है। इन्हें भीषण शारीरिक और मानसिक यातना झेलनी पड़ती है। बाल विवाह पर प्रतिबंध के बावजूद रीति-रिवाज, पिछड़ेपन ओर रूढि़वादिता के कारण अब भी देश के कई हिस्सों में लड़कियों को विकास का अवसर दिए बिना अंधे कुंए में धकेला जा रहा है। छोटी उम्र में विवाह से कई बार लड़कियों को बाल वैधव्य का सामना करना पड़ता है, जिससे उनका जीवन मुसीबतों से घिर जाता है।

इसके अलावा बाल विवाह से कई बार वर-वधू के शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक विकास में विपरीत असर पड़ता है। बाल विवाह के कारण लड़कियों की पढ़ाई रुक जाती है। कम पढ़ी-लिखी महिला अंधविश्वासों और रूढि़यों से घिर जाती है। ऐसी पीढ़ी से देश व समाज हित की क्या उम्मीद की जा सकती है? इससे दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है कि करीब 53 प्रतिशत बच्चे यौन शोषण के शिकार हैं। इनमें केवल लड़किया ही नहीं, बल्कि लड़के भी हैं। पाच साल से 12 साल की उम्र के बीच यौन शोषण के शिकार होने वाले बच्चों की संख्या सबसे अधिक है।

कुल मिलाकर कहा जाए तो बच्चों के मामले में भारत की स्थिति सबसे खराब है। प्रशासनिक अधिकारियों को इस तरह की कोई ट्रेनिंग नहीं दी जाती कि वह बच्चों के प्रति संवेदशनील होकर अपने दायित्व को समझें। बच्चे वोट बैंक नहीं होते इसलिए राजनीतिक पार्टिया दिखावे के लिए भी उनकी चिंता नहीं करतीं। सब बातें छोड़ भी दें तो सरकार बच्चों के लिए बेसिक शिक्षा तक नहीं उपलब्ध करवा पा रही है।

पूरे देश में स्कूलों का अब भी अभाव है। जहा स्कूल है भी, वहा कुव्यवस्था है। कहीं अध्यापकों की कमी है तो कहीं जरूरी सुविधाएं नहीं हैं। 10 सितंबर को दिल्ली के खजूरी खास स्थित राजकीय वरिष्ठ बाल/बालिका विद्यालय में परीक्षा से पूर्व मची भगदड़ में पाच छात्रों की मौत हो गई थी, जबकि 32 छात्राएं घायल हुई थीं। इसके पीछे मुख्य वजह कुव्यवस्था थी। यह स्थिति देश की राजधानी की है। इससे पता चलता है कि हम देश के भविष्य के प्रति संवेदनशील और जिम्मेदार है।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की सदस्य संध्या बजाज का कहना है कि गुमशुदा बच्चों के अधिकाश मामलों में रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती। गुम होने वाले ज्यादातर बच्चे शोषण का शिकार होते है। इसलिए हर गुमशुदा बच्चे की रिपोर्ट जरूर दर्ज की जानी चाहिए। बच्चों को शिक्षा का अधिकार मिलने से उनकी जिदंगी और बेहतर बन जाएगी। हम उनसे सबक क्यों नहीं लेते

कई देशों में बच्चों के लिए अलग से लोकपाल नियुक्त हैं। सबसे पहले नार्वे ने 1981 में बाल अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक अधिकारों से युक्त लोकपाल की नियुक्ति की। बाद में आस्ट्रेलिया, कोस्टारिका, स्वीडन [1993], स्पेन [1996], फिनलैंड आदि देशों ने भी बच्चों के लिए लोकपाल की नियुक्ति की। लोकपाल का कर्तव्य है बाल अधिकार आयोग के अनुसार बच्चों के अधिकारों को बढ़ावा देना और उनके हितों का समर्थन करना। यही नहीं, निजी और सार्वजनिक प्राधिकारियों में बाल अधिकारों के प्रति अभिरुचि उत्पन्न करना भी उनके दायित्वों में है। कुछ देशों में तो लोकपाल सार्वजनिक विमर्शो में भाग लेकर जनता की अभिरुचि बाल अधिकारों के प्रति बढ़ाते हैं और जनता व नीति निर्धारकों के रवैये को प्रभावित करते हैं।

बच्चों के शोषण एवं बालश्रम की समस्याओं के मद्देनजर भारत में भी बच्चों के लिए स्वतंत्र लोकपाल व्यवस्था गठित करने की मांग अक्सर की जाती रही है, लेकिन सवाल यह है कि इतने संवैधानिक उपबंधों, नियमों-कानूनों, मंत्रालयों और आयोगों के बावजूद अगर बच्चों के अधिकारों का हनन हो रहा है तो समाज भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता।

सौजन्य ; दैनिक जागरण

Saturday, November 7, 2009

... पर ये जुनून कम नहीं होगा

आईआईएमसी में दाखिला लेने से पहले मैं प्रभाष जोशी जी के बारे में कुछ नहीं जानता था। यहाँ तक कि मुझे यह भी नहीं पता था कि प्रभाष जोशी नाम का कोई व्यक्ति एक वरिष्ठ पत्रकार है। आईआईएमसी में आने के बाद मैंने उनके बारे में सुना और उनसे मिलना चाहा। मेरी यह ख्वाहिश जल्दी ही पूरी हुई, जब वे हमारे संस्थान में एक सेमिनार में आए। उस वक्त मैंने पहली बार उन्हें देखा था। लाख कोशिशों के बाद भी उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। उस सेमीनार में उन्होंने जिस अंदाज़ में अपनी बात कही थी, वो बातें आज भी मेरे कानों में गूंजती रहती है। उनके बोलने का तरीका, शब्दों का चयन और वो आक्रामक तेवर। वास्तव में मुझे पत्रकारिता में आगे बढ़ने के लिए उनकी बातों ने प्रेरित किया।

छह नवम्बर की सुबह मैं सो रहा था। मेरे मोबाइल पर मैसेज आया कि प्रभाष जोशी इस दुनिया में नहीं रहे। मैं हैरान रहा गया। समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। पिछली रात भारत और ऑस्ट्रलिया के बीच हुए मैच को देखते हुए दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई। मैच में सचिन ने १७५ रन बनाए, लेकिन भारत ये मैच हार गया। मैं उनकी मौत के बारे कहूँगा कि क्रिकेट के दीवाने को क्रिकेट ने ही मार दिया। सुबह जब मैं ऑफिस पहुँचा तो सबसे पहले ख़बरों की वेबसाइट्स पर उनकी मौत के बारे में पढ़ा। बहुत दुःख हुआ।

इसमे कोई दो राय नहीं कि वो क्रिकेट और सचिन तेंदुलकर के बहुत बड़े प्रसंशक थे। जब भी मैं क्रिकेट के
बारे में उनके लिखे हुए किसी भी कॉलम को पढ़ता था, तो ऐसा लगता था कि मानो मैंने वो मैच देखा हो। उनकी लेखनी से मुझे इस प्रकार लगाव हो गया था कि मैं 'जनसत्ता' अख़बार केवल उनसे लिखे हुए कॉलम को पढ़ने के लिए ही खरीदता था। उनसे दोबारा मिलने के लिए मैं बैचेन था। मेरी ये बेकरारी जल्दी ही ख़त्म हुई। दूरदर्शन के एक प्रोग्राम के लिए मुझे जाना था। वहां जाकर जब मुझे पता चला कि इस कार्यक्रम में प्रभाष जोशी भी आ रहे हैं तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। इस कार्यक्रम में कई बड़े पत्रकार शामिल थे। करीब एक घंटे बाद जब कार्यक्रम ख़त्म हुआ तो मुझे उनसे मिलने को अवसर मिला। स्टूडियो के बाहर मेरी उनसे मुलाकात हुई। मुलाकात के वो पल मेरे लिए यादगार बन गए। उस समय मेरी उनसे काफ़ी बातें हुईं और पत्रकारिता के बारे में भी उन्होंने मुझे काफी बताया। उन्होंने तब एक बात कही थी, 'पत्रकारिता करने के लिए एक जुनून की ज़रूरत होती है। तुम अभी पत्रकारिता कि दहलीज़ पर हो। यदि इसमें सफल होना चाहते हो तो अपने जुनून को कम मत होने देना।'

आज प्रभाष जोशी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन एक पत्रकार के लिए उन्होंने जिस जुनून की बात कही थी, वो जुनून अब मेरे अन्दर और तेजी से बढ़ेगा। हिन्दी के इस महान पत्रकार को मैं श्रद्धांजलि देता हूँ।

Wednesday, May 20, 2009

बहकी पत्रकारिता की डगर

पत्रकारिता को लोकतंत्र को चौथा स्तम्भ कहा जाता है। इसका अर्थ है कि यदि यह स्तम्भ हिला तो लोकतंत्र को नुकसान । लेकिन जहाँ तक मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई की है, हमें बताया गया था कि पत्रकार को किसी भी दिशा में बिना झुके अपना सिर उठाए रखना चाहिए। लेकिन १५ वीं लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद मीडिया में जिस तरह की पत्रकारिता की गई और उनमें जैसी खबरें दीं गईं, उन्हें देखकर और पढ़कर मन से सिर्फ़ तीन शब्द निकले। हाय री पत्रकारिता!

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में तो मैं ज्यादा नहीं कहूँगा, लेकिन प्रिंट मीडिया की ख़बरों को पढ़कर मुझे लगा कि शायद मेरी पत्रकारिता की पढ़ाई व्यर्थ चली गई। इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोकसभा चुनाव के बाद किसी ना किसी पार्टी की सरकार बननी ही थी। लेकिन चुनाव के परिणाम के बाद पत्रकारिता किसी एक पार्टी की तरफ़ बह जाएगी ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि मैं किसी ख़ास पार्टी से ताल्लुख रखता हूँ। हर मतदाता की तरह मैं भी अपने मत का प्रयोग करता हूँ, लेकिन जब पत्रकारिता की बात होती है तो मैं सभी राजनीतिक पार्टियों को ताक पर रखता हूँ।

इस बार लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद प्रिंट मीडिया कांग्रेस की तरफ़ झुकती नजर आ रही है । और ऐसा लग रहा है कि मानों पत्रकारिता अब कांग्रेस की कलम से चलेगी। मैं यहाँ पर स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं कांग्रेस का विरोधी नहीं हूँ। बात यहाँ पर पत्रकारिता की हो रही है। नई दिल्ली से ही प्रकाशित होने वाले एक अखबार ने कांग्रेस के एक नेता के नाम आगे अब 'श्री' लगना शुरू कर दिया है। इस पर जब आज सुबह इस अख़बार को पढ़ते हुए मेरी नज़र पड़ी तो मैं अचंभित हो गया। मैं इस अख़बार को पिछले आठ महीने से पढ़ रहा हूँ और यह अख़बार उसी दौरान दिल्ली से प्रकाशित होना शुरु हुआ था। इससे पहले कभी भी इस अख़बार ने 'श्री' शब्द का प्रयोग नहीं किया था। लेकिन लगता है कि इस प्रसिद्ध अख़बार ने भी पत्रकारिता की सीमा को लाँघ दिया है।

मैं आपको ऐसे अनेक अख़बारों का उदाहरण दे सकता हूँ जिसमें आने वाली नई सरकार के गुण गाने शुरू कर दिए हैं। इसमें कोई दोराय नहीं है कि इस बार कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया है, लेकिन यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। यदि कुछ पहली बार हुआ है तो वह है पत्रकारिता में बदलाव। एक ऐसा बदलाव जिसे देखकर लगता है कि अब पत्रकारिता की परिभाषा बदलनी अब समय आ गया है। अब पत्रकारिता की ऐसी परिभाषा का इज़ाद की जाए जिसमें चापलूसी, घूसखोरी आदि शब्द शामिल हों। हो सकता है कि किसी को मेरी ये बातें बुरी लग रहीं हों, तो मैं उसके लिए माफ़ी चाहता हूँ। लेकिन हम सत्य को छिपा नहीं सकते। और यह ही सत्य है। एक निष्पक्ष पत्रकारिता इस बार चुनाव के दौरान तो देखने को मिली, लेकिन चुनाव के परिणामों के बाद किसी एक पक्ष में पत्रकारिता का झुकना मुझे आहत कर रहा है।

Wednesday, March 18, 2009

दोस्ती का वो आलम

जैसे ही सुबह उठकर मेरी नज़र घड़ी पर पड़ी अचानक मैं चौंक गया। सुबह के नौ बज चुके थे। जल्दी से मैं नहा-धोकर कॉलेज पहुँचा। यह बात तब की है जब मैं बीएससी थर्ड ईअर का स्टुडेंट था। कॉलेज के वे दिन भी बड़े निराले थे। क्लास की तो क्या हमें यह तक नहीं पता होता था कि पीरिअड किस सब्जेक्ट और किस टीचर का है। खैर, जब मैं कॉलेज पहुँचा तब तक मेरे सभी दोस्त आ चुके थे। आज का दिन भी बड़ा निराला था। दिन था हमारी फेअरवेल पार्टी का। बीएससी की हमारी पढ़ाई अन्तिम दौर पर थी। परीक्षाओं की तिथियाँ घोषित हो चुकीं थीं। यह पार्टी बीएससी सेकंड ईअर के स्टूडेंट्स की तरफ़ से दी जा रही थी।

सेकंड ईअर के स्टूडेंट्स ने तिलक लगाकर पार्टी हॉल में हमारा स्वागत किया। प्रिंसिपल और टीचर्स के लेक्चर्स के बाद हमारी पार्टी शुरू हुई। पार्टी में खूब नाच-गाना हुआ। शाम को जब पार्टी ख़त्म हुई तब नज़ारा कुछ और था। सालों पुराने वे दोस्त केवल कुछ ही समय के लिए हमारे साथ थे। कुछ समय बाद वे कहाँ होंगे किसी को कुछ नहीं पता था। उस वक्त वहां पर एक अजीब सा माहौल था। पार्टी ख़त्म हुई और मैं अपने घर आ गया।

घर मैं आ तो गया लेकिन उस दिन मुझे घर का माहौल कुछ अजीब लग रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे कि मानों कुछ चीज है जो मुझसे दूर जा रही है और मैं उसे चाह कर भी रोक नहीं पा रहा हूँ। आंखों में आंसू और दिल में दोस्तों से बिछड़ने का गम था। कॉलेज से निकले हुए और उन दोस्तों से दूर रहते हुए आज मुझे तीन साल हो गए हैं। उस समय के कुछ दोस्तों से आज मेरा संपर्क हो जाता है। जब मैं उनसे मिलता हूँ तो दिल में एक अलग खुशी महसूस होती है।

आज जब मैं यह ब्लॉग लिख रहा हूँ तो सोचता हूँ कि दोस्तों के साथ दोस्ती का आलम भी कितना गहरा होता है। सुख-दुःख में काम आने वाला दोस्त जब सालों तक साथ रहने के बाद बिछड़ता है तो उसके बिछड़ने का गम सहा नहीं जाता। साथ-साथ रहना, गप्पें मारना, लड़कियों को देखना और उन पर कमेन्ट मारना, चाय या कोल्ड ड्रिंक पीना और पैसे उसी से दिलवाना। यह बहाना लगाकर "यार पैसे खुले नहीं हैं या कल मैं पिला दूँगा।" दोस्तों के साथ बिताये ये क्षण ऐसे होते हैं जो कि जिंदगी में कभी दुबारा नहीं आते हैं।

आज जब मैं कॉलेज में दोस्तों के साथ बिताये उन पलों को याद करता हूँ तो दिल से किसी शायर की कही हुईं ये दो पंक्तियाँ याद आती हैं-
दोस्त, दोस्त के लिए खुदा होता है।
यह एहसास तब होता है जब वह दोस्त से जुदा होता है।।

Tuesday, March 17, 2009

सीट दा मामला है

आजकल जहाँ देखो वहीं सीट दा मामला चल रहा है। बात चाहें किसी सफर में बस या ट्रेन की हो या चाहें स्कूल या दफ्तर की। हर जगह सीट के लिए मारा मारी मची हुई है। और चुनावी मौसम ने तो इस सीट की मांग को दोगुना कर दिया है। जिस प्रकार डीटीसी या ब्लू लाइन बस में जब कोई व्यक्ति चढ़ता है तो वह सबसे पहले सीट ढूंढने के लिए अपनी नज़रों को इधर-उधर दौड़ाता है उसी प्रकार आज अपनी पार्टी से टिकट पाने के लिए उस पार्टी का कार्यकर्ता टिकट के लिए सभी हदों को पार कर रहा है। भई मामला जो टिकट का है।

ये टिकट का मामला भी बड़ा निराला है। ये टिकट ही है जो पार्टी में अच्छे-अच्छों के रिश्तों में भी दीवार बन जाती है। अगर टिकट न मिली तो बस टूट गई पार्टी से रिश्तेदारी और वह पार्टी उसकी सबसे बड़ी दुश्मन बन जाती है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सीट की चुम्बकीय शक्ति कितनी शक्तिशाली है। किसी-किसी के लिए तो सीट जीने-मरने का सवाल बन जाती है और नाक भी। अगर सीट न मिली तो बस कट गई नाक। अब वे बेचारे कहाँ जायें? आखिरी उम्मीद उनकी यही होती है कि वे किसी दूसरी पार्टी में जाकर अपनी लाज बचा लें और अपनी पुरानी पार्टी पर जमकर भड़ास निकालें।

दूसरी पार्टी में भी उनकी उम्मीद होती है की उन्हें वहां से सीट के लिए टिकट मिले। कुछ इसमें सफल हो जाते हैं तो कुछ लोगों पर धोबी का कुत्ता, ना घर का ना घाट का वाली कहावत लग जाती है। बड़ा मोह होता है इन लोगों का सीट से। जिन लोगों को सीट मिल जाती है वे वहां पर फेविकॉल का मजबूत जोड़ लगाकर बैठ जाते हैं। और पूरे पाँच साल बाद जब वह जोड़ ढीला पड़ने लगता है तब उन्हें याद आती है फेविक्विक की। वे बेचारे फ़िर लग जाते हैं सीट से चिपकने के जुगाड़ में। इस सीट के चक्कर में वे दिन-रात एक कर देते हैं। और सीट मिलने के बाद फ़िर सोते हैं पैर फैलाकर। फ़िर तो चाहें इनके कान पर ढोल-नगाड़े बजाओ या बैंड-बाजे इनकी नींद पॉँच साल बाद ही खुलती है। इनको इतना आराम मिलता है इस सीट पर।

कभी-कभी मैं भी सोचता हूँ कि इस सीट की नींद लेकर देखूं। लेकिन सीट के चक्कर में पड़ना मेरा काम नहीं है। मेरा काम है जो लोग इन सीटों पर सो रहें हैं उन्हें किसी भी तरह से जगाना और और उन्हें उनकी जिम्मेदारी बताकर जनता की सेवा करवाना। क्यूंकि मैं एक पत्रकार हूँ और अपनी ज़िम्मेदारी अच्छी तरह से समझता हूँ।

Friday, March 13, 2009

आई-आईएमसी: तुम बहुत याद आओगे


दिल्ली में पढ़ने की मेरी तमन्ना शुरू से थी लेकिन किस्मत साथ न दे सकी। इंटर की परीक्षा पास करने के बाद मैंने एरोनोटिकल इंजीनियरिंग करने के लिए दिल्ली में फॉर्म भरा। दरअसल मैं स्पेस इंजिनीअर बनना चाहता था। मैं उस संस्थान में सेलेक्ट भी हो गया। लेकिन किस्मत ने मुझे खुर्जा में ही रहने दिया। बीएससी मैंने अपने शहर खुर्जा से ही की। २००६ में मैंने जामिया यूनिवर्सिटी से एमबीए, एमसीए आदि की परीक्षा दी। लेकिन सफल नहीं हो पाया। २००७ में जामिया से ही पत्रकारिता करने के लिए लिखित परीक्षा दी। लिखित परीक्षा में सफल हुआ। इंटरव्यू के लिए कॉल आई। लेकिन फ़िर वही किस्मत। इंटरव्यू में सफल न हो सका।


लेकिन कहते हैं न कि जो होता है अच्छे के लिए होता है। २००८ में मैंने भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) की लिखित परीक्षा में बैठा। पास हुआ, इंटरव्यू के लिए कॉल आई। और आखिरकार मेरी किस्मत रंग लाई। मेरा दिल्ली में पढ़ने का सपना पूरा हुआ। आईआईएमसी में एक साल का डिप्लोमा मेरा मार्च में ख़त्म हो जायेगा और मेरी पढ़ाई भी।


आख़िर ऐसा क्या था दिल्ली में? मेरी किस्मत में आईआईएमसी की पढ़ाई लिखी थी। आईआईएमसी ने मुझे दिल्ली बुलाया और मेरी दिल्ली में पढ़ने की इच्छा पूरी की। आज जब मेरी पढ़ाई पूरी हो चुकी है और आईआईएमसी छोड़ने का समय जैसे-जैसे करीब आ रहा है, मेरे दिल की धड़कनें तेजी से बढ़ रहीं हैं। आईआईएमसी ने दिल्ली में मेरे जीवन के लिए वो महत्वपूर्ण चीजें दीं जिन्हें मैं कभी नहीं भूला पाऊँगा। आईआईएमसी ने जहाँ मुझे अपने देश की विभिन्न संस्कृतियों से अवगत कराया वहीं कभी ना खत्म होने वाली यादें दीं, दोस्त दिए और ऐसे टीचर दिए जो हमारी सहायता के लिए दिन-रात तैयार रहते हैं।


आईआईएमसी से जुड़ी वैसे तो बहुत सारी बातें हैं जिन्होंने मेरी जिंदगी को बदल कर रख दिया। खट्टे-मीठे अनुभव भी मिले। आईआईएमसी ने मुझे जिंदगी के वे मायने सिखाये जिनसे मैं अभी तक अज्ञान था। आईआईएमसी से जाने का मन तो नहीं कर रहा लेकिन मजबूर हूँ। जाना तो पड़ेगा ही एक नई सोच के साथ, एक नई उमंग के साथ, एक नए जोश के साथ। आईआईएमसी से नौ महीने की दोस्ती इतनी गहरी जो जायेगी ऐसा मैंने सोचा तक नहीं था। आज इस दोस्त से बिछड़ने का गम तो है लेकिन मैं भगवान का शुक्रिया अदा करता हूँ कि उसने मुझे इतना अच्छा दोस्त दिया। और मेरा सपना भी पूरा किया।

Thursday, March 5, 2009

रॉकेट साइंस-रॉकेट साइंस

मैं यहाँ आपकी विज्ञान की क्लास नहीं लूँगा। और न ही रॉकेट साइंस के बारे में बताऊंगा। लेकिन रॉकेट साइंस शब्द के बारे में जरूर बताऊंगा। यह वह शब्द है जिसे टीचर अक्सर मेरी क्लास में कहते रहते हैं। जब भी किसी विषय, टॉपिक या घटना के बारे में बताते हैं तो वे कहते हैं कि इसमें कोई रॉकेट साइंस नहीं है।

भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली में २८ जुलाई, २००८ से शुरू हुआ हमारा सत्र वैसे तो अब समाप्ति की ओर है लेकिन रॉकेट साइंस शब्द मेरी यहाँ की क्लासों में शुरू से ही सुनाई दे रहा है। हमारे संस्थान के पत्रकारिता पढ़ाने वाले टीचरों से लेकर गेस्ट फैकल्टी तक रॉकेट साइंस की बात करते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि आख़िर रॉकेट साइंस ही क्यूँ। वे या हम उस विषय की सरलता को प्रकट करने के लिए किसी और शब्द का भी नाम ले सकते हैं।

मैं आपको बता दूँ कि मैंने ग्रेजुएशन तक साइंस में पढ़ाई की है और यहाँ पत्रकारिता में यह शब्द सुनकर ऐसा लगता है कि मानों मैं साइंस की क्लास कर रहा हूँ। राजनीतिक, बिजनैस, खेल, कंफ्लिक्ट आदि की पढ़ाई करवाने वाले टीचर भी इस शब्द का प्रयोग करते हैं। वैसे मैं आपको बता दूँ कि रॉकेट साइंस इतनी भी कठिन नहीं है जितनी लोग समझते हैं।

एक वाक्य तो बहुत ही इंट्रेस्टिंग है। हुआ यूँ कि एक बार मैं क्लास कर रहा था। क्लास राजनीतिक पत्रकारिता की थी। एक टीचर हमें राजनीतिक सर्वे के बारे में बता रहे थे। किसी बात के दौरान उन्होंने भी रॉकेट साइंस शब्द का प्रयोग किया। अचानक मेरे दिमाग में आया कि किसी भी चीज से आसानी से बचने के लिए रॉकेट साइंस शब्द कितना आसान है। एक रॉकेट की तरह निकलने वाला यह शब्द वास्तव में रॉकेट ही है। किसी भी व्यक्ति के दिमाग में कुछ भी घुसाने के लिए बस कह दो, "यह कोई रॉकेट साइंस नही है।" तो आप समझ गए होंगे कि कोई भी चीज इस दुनिया में रॉकेट साइंस नहीं है।

Sunday, March 1, 2009

मेरी नव वर्ष की वो सुबह

प्रतीक्षा की रात की कशमकश, मत पूछ कैसे सुबह हुई
कभी एक चिराग जला दिया, कभी एक चिराग बुझा दिया

वैसे तो जिंदगी का हर दिन महत्वपूर्ण होता है लेकिन उस जिंदगी में कोई दिन या पल ऐसा भी होता है जो यादगार बन जाता है। ऐसे ही मेरे महत्वपूर्ण पलों में से एक पल था २००४ की नव वर्ष की सुबह का पल। ३१ दिसम्बर, २००३ की रात मैं सही ढंग से सो नहीं पाया था। इंतजार था अगली सुबह का। उस सुबह का जो मेरी जिंदगी को बदलने जा रही थी। उस समय मैं बी.एससी फर्स्ट ईअर का छात्र था। उस दिन सुबह मेरे ट्यूशन में न्यू ईयर की पार्टी थी। सुबह मैं जल्दी उठा और तैयार होकर पार्टी में गया।

ट्यूशन की पार्टी में पहुँचते ही मेरी नज़रों ने किसी को तलाश करना शुरू किया। तलाश उस लड़की की जिससे मिलने के लिए पार्टी एक बहाना थी। वैसे तो वह मेरे साथ मेरे ट्यूशन में ही पढ़ती थी। हम रोज़ मिल भी लिया करते थे। लेकिन बातें आंखों ही आंखों में होती थीं। आज मैं उसे न्यू ईअर की बधाई के बहाने मिलने जा रहा था। आखिरकार मेरी तलाश ख़त्म हुई। वह लड़की उस पार्टी में आई। उसके आते ही मेरे दिल की धड़कन तेजी से बढ़ने लगीं। पार्टी में मैंने उसे बधाई देने की लाख कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो सका।

पार्टी करीब दो घंटे तक चली। जब पार्टी ख़त्म हुई तो वह घर जाने लगी। वह अपने घर मेरे घर के रास्ते से होकर ही जाती थी। मैं भी उसके साथ चल दिया। उसको देखकर मुझे ना जाने क्या हो जाता था? मेरे दोस्त मुझे बताते थे कि मुझे प्यार हो गया है। क्या प्यार ऐसा ही होता है मुझे नहीं पता था। खैर जब वो लड़की जाने लगी तो रास्ते में मैंने उसे न्यू ईअर की बधाई दे ही डाली। लेकिन मुलाकात फ़िर न हो सकी। वह मेरी बधाई को लेकर मुस्कुराकर चली गई। और मैं भी अपने होंठों पर हल्की मुस्कुराहट लिए घर आ गया।

पॉँच साल बाद भी मैं उस सुबह का इंतजार कर रहा हूँ। आज वो लड़की जिससे शायद मैं मोहब्बत कर बैठा था मेरे साथ नहीं है लेकिन वह लड़की मुझे मोहब्बत करना सिखा गई। इस मोहब्बत बारे में मैं सिर्फ़ यही कहना चाहता हूँ--

मोहब्बत की तस्वीर को बहुत पास से देखा है मैंने ।
मत पूछो होती है कैसी बस उसे छूकर नहीं देखा है मैंने॥

एक दबी कसक

ये दिल तेरी चाहत का आसरा चाहता है
तेरी मोहब्बत में डूब जाने को चाहता है,
तू मुझे चाहे एक दिन ऐसा भी आए
की तेरी बाहों में मर जाने को जी चाहता है।

तेरे दीदार को को तरसती हैं आँखें मेरी
तुझे छूने को जी चाहता है,
दबी है एक कसक मेरे दिल में
उसे बयां करने को जी चाहता है।

मैंने तो लिख दी है अपनी जिंदगी नाम तेरे
ये दिल तेरी एक हाँ का तलबगार चाहता है,
की मर कर भी जिंदा रहूँ तेरी वफाओं में
बस तुझे पाने को जी चाहता है।
ये दिल तेरी चाहत का आसरा चाहता है.....

Friday, February 27, 2009

सूरजकुंड मेले का एक दिन


वैसे तो मैं ज्यादा मेले देखने नहीं गया हूँ। मेरे शहर खुर्जा में साल में तीन मेले लगतें हैं। पहला रामलीला का मेला, दूसरा नवरात्री का और तीसरा सावन का मेला। तीनों मेलों का अपना अलग-अलग महत्व है। इन मेलों के अतिरिक्त मैं मुरादाबाद में नुमाइश देखने गया हूँ। जिसका अपना महत्व है। लेकिन जब मैं फरवरी २००९ में फरीदाबाद का सूरजकुंड का मेला देखने गया तो वहां जाकर मुझे लगा कि यह कोई मेला नहीं बल्कि एक ऐसी दुनिया है जिसमें लोगों की संस्कृति को दर्शाया जा रहा है। अपने देश के विभिन्न राज्यों के अलावा विदेशों से आए शिल्पकारों ने अपनी कला के जो नमूने पेश किए उन्हें देख कर मैं दंग रह गया।


चूँकि मैं अपने संस्थान की तरफ़ से अपने दोस्तों के साथ गया था। लेकिन वहां पहुँचने के बाद गाँवरुपी सूरजकुंड का वह वातावरण जिसमें अलग-अलग स्टॉलों पर शिल्पकला का रंग बिखरा हुआ था देख कर आश्चर्य हुआ। मुझे यकीं नहीं आ रहा था कि हमारे देश में शिल्प कला ऐसे नमूने हैं जिन्हें देख कर कोई भी हिन्दुस्तानी गर्व से कह सकता है कि मुझे अपने देश पर गर्व है।

कहीं अँगुलियों पर नाचती कठपुतलियां तो कहीं संगमरमर में जड़ित रत्नों से बना ताजमहल। और बाइस्कोप को देखकर तो मैं दंग रह गया। मुझे याद है कि जब मैं कोई आठ-दस साल का था तब बाइस्कोप दिखाने वाला मेरी गली में आया करता था। और मैं मात्र २५ या ५० पैसे में बाइस्कोप देखा करता था। सूरजकुंड मेले में बाइस्कोप वाले को देख मुझसे उसे देखे बिना रूका नहीं गया। लेकिन उस दिन बाइस्कोप वाले ने बाइस्कोप दिखाने के दस रूपये लिए।


एक-एक स्टॉल उस राज्य की कहानी कह रहा था जहाँ से वह था। मध्य-प्रदेश थीम पर आधारित सूरजकुंड का यह मेला दर्शकों को चुम्बक के विपरीत सिरों की तरह अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। कहीं राज्यों के लोक्न्र्त्यों पर थिरकते कदम तो कहीं नगाड़ों पर उठते पैर। इस मेले में मेरे लिए सब कुछ था, कमी थी तो किसी ऐसे साथी की जो उस मेले को मेरे साथ देखता। दोस्त तो थे लेकिन साथी नहीं था। वहां से मैंने कुछ खरीददारी की। खरीदना तो बहुत कुछ चाहता था लेकिन वहां सामान की कीमतों के वजन के मुकाबले मेरे बटुए का वजन हल्का था।


शाम के समय हम लोग वहां से वापस आ गए। अभी भी वह मेला मुझे याद आता है। मैं शुक्रगुजार हूँ अपने संस्थान का कि उसने मुझे इस मेले के जरिये अपने देश कि उस संस्कृति से अवगत कराया जिससे मैं अभी तक महरूम था।

Thursday, February 5, 2009

....और उजड़ गया आँगन का आँचल

बचपन, एक ऐसा समय होता है जिसमें हम अपनी सभी चिंताओं को भूलकर एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जिसमें सिर्फ मौज- मस्ती होती है। और उसी मौज-मस्ती में कुछ ऐसी प्राकृतिक चीजें होती हैं जिन्हें हम उम्र भर नहीं भूलते। मेरे बचपन में भी ऐसी ही एक प्राकृतिक चीज थी जिसे मैंने युवा अवस्था में कदम रखते ही खो दिया। वह था मेरे आँगन में लगा नीम का पेड़। वह नीम का पेड़ जिसके नीचे मैंने अपने बचपन के खट्टे-मीठे अनुभव लिए। उस पेड़ की पत्तियों को लहराते देख जहाँ मैंने हँसना सीखा वहीं उस पेड़ को अपना एक अच्छा दोस्त भी बनाया।

गर्मियों में मुझे अपनी छाँव देने वाला वह पेड़ सर्दियों में भी धूप के लिए अपनी बांहों रूपी टहनियों को खोल दिया करता था। कभी लंगड़ डालना तो कभी उसकी निबोलियों से खेलना। लेकिन वह पेड़ कभी नाराज नहीं होता था। माना कि पतझड़ के मौसम में उसके पत्तों से मम्मी कभी-कभी नाराज हो जाया करती थीं। लेकिन बसंत ऋतु के बाद के उस नए नवेले पेड़ को देख ऐसा लगता था कि मानों यह पेड़ फिर से एक नई पारी के लिए तैयार है। मुझे याद है जब मैं उस पेड़ कि नई कपोलों को यह सोचकर खाता थी कि इससे मेरा खून शुद्ध हो जाएगा। लेकिन उन कपोलों को खाने के बाद जो मेरे मुंह का जो हाल होता था उसे मैं आज तक महसूस करता हूँ।

बारह साल पहले उस पेड़ से मेरी दोस्ती हमेशा के लिए टूट गई। कारण जो भी रहा हो लेकिन आज वो नीम का पेड़ मेरे साथ नहीं है। सालों की वो दोस्ती इक पल में टूट जायेगी ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। लेकिन कहते हैं न कि उम्मीद भी उन्हीं से टूटती है जिनसे टूटने कि उम्मीद नहीं होती। आज जब भी कभी वह नीम का पेड़ मुझे याद आता है मुझे बचपन का समय याद आ जाता है। मेरे आँगन का वह आँचल जो मुझे हमेशा अपने अन्दर समेटे रहता था आज वह उजड़ गया है और उस आँचल की कमी मुझे आज भी महसूस होती है।

Tuesday, January 6, 2009

डाक बाबू कहाँ हो

१०-१२ साल की उम्र के मुझे आज भी वे दिन याद हैं जब मैं अपनी नानी के घर जाया करता था। नानी के घर के सामने वाले घर की महिला जब मुझे बुलाकर सऊदी अरब में नौकरी करने वाले अपने पति के लिए चिट्ठियां लिखवाया करती थी। मैं बहुत खुश होकर उसकी चिट्ठी लिखा करता था। यही नहीं जब कभी मेरे घर की गली में डाकिया आता था तो उसे देखकर मन खुशी से उछल जाता था कि शायद उसके पास हमारे लिए भी कोई चिट्ठी हो! और फिल्मों में भी डाकिया जब किसी कि चिट्ठी पढ़कर सुनाता था तो उसके आस-पास लगी भीड़ को देखकर मन रोमांचित हो उठता था। सुख-दुःख का संदेश लेकर आने वाले डाकिया को लोग एक अतिथि का दर्जा देते थे। लेकिन वह अतिथि आज कहाँ है?

तेजी से बढ़ रही सूचना क्रांति ने आज डाकिया के रास्तों को कम कर दिया है। मोबाइल फोन, ई-मेल आदि ने आज चिट्ठियों के अस्तित्व को लगभग समाप्त कर दिया है। आज अधिकतर चिट्ठियां या कूरियर केवल नौकरियों से सम्बंधित दस्तावेज या पार्सल ही आते हैं। लेकिन उनको लाने वाले जिन्हें हम डाकिया या कूरियर कम्पनी का कर्मचारी कहते हैं के प्रति वो अतिथि सत्कार नहीं रहा है। सूचना क्रांति ने डाकिया और आम आदमी के बीच वो दूरी बढ़ा दी है जिसकी कम होने की उम्मीदें असंभव सी लग रहीं हैं। लेकिन सच यही है कि पल भर में पहुँचने वाले संदेश आज लेट-लतीफ़ चिट्ठियों पर भारी पड़ रहें है। पुरानी फिल्मों में सुनाई पड़ने वाले गाने जैसे चिट्ठी आई है, वतन से चिट्ठी आई है....., डाकिया डाक लाया.... आदि आज कि फिल्मों से गायब हो चुके हैं। या कहें कि मर चुके हैं। यही नहीं पैरों में चप्पल, कंधे पर थैला, सर पर टोपी और हाथ में साईकिल लेकर चलने वाला डाकिया आज समाज से भी लगभग गायब है। आज कि युवा पीढ़ी सूचना के इस प्रवाह में तेजी से बह रही है। पल भर में संदेश भेजना और प्राप्त करना उसकी आदत बन गई है वह संदेशों का इन्तजार नहीं करती।

भाग-दौड़ भारी इस जिन्दगी में संदेशों ने भी रफ़्तार पकड़ ली है जो कि जिन्दगी कि रफ़्तार से दो कदम आगे चल रहें हैं। लेकिन अंग्रेजी में एक कहावत है,"नो लोंगर नाओ, गोन आर दी डेस।" और यह कहावत ठीक ही है। हो सकता है कि आगे चलकर आने वाली पीढ़ी को शायद डाकिया के बारे में पता ही ना रहे। डाकिया के थैले से लगातार कम हो रहीं चिट्ठियां कहने को विवश करती हैं,"डाकिया बाबू कहाँ हो?" आज भी आँखें गढ़ाए मैं उसी बड़े-बड़े चश्मे वाले डाकिया का इन्तजार करता हूँ। यह इन्तजार है कि लगातार बढ़ता ही जाता है और शायद ये इन्तजार अब इन्तजार ही रहे। मैं अपने अन्दर से उस डाकिया की छवि नहीं भूल सकता। और आज भी कभी-कभी अचानक उसे याद कर लेता हूँ।

कविता

समीर
वो लहराती पेड़ों पर
मचलती खलिहानों में
पूछता उससे
बता तेरा बसेरा कहाँ है?
नित्य आती मेरे पास
निर्जन में
पूछता उससे
बता तेरी डगर क्या है?
मैं अनायास ही उससे कहता
तुम्हारा वरण गान
मधु पूरित है
और तुम्हारा कोमल तन
विश्वस्रज है
तुम्हारा क्षितिज बदन
निशा शयन में
कल्पना की गहराई में
शत-शत गंध वाला होता है
जिसमे मुझे विश्व-वंदन-सार नजर आता है
हे नाम-शोभन समीर
अब तुम बताओ मुझे
उर्ध्व नभ-नग में
तुम्हारा निर्गमन द्वार कहाँ है?
तुम अतुल हो
तुम श्री पावन हो
हे सरोज-दाम
तुम ज्योति सर हो
मेरे चिन्त्य नयनों में
ख्यालों के स्वपन दिखाने वाली
हे रत्न चेतन, हे तापप्रशमन
ह्र्यदय स्पर्शक समीर
अब तो बता दो
तुम्हारा बसेरा कहाँ है?
तुम्हारा बसेरा कहाँ है?

Sunday, January 4, 2009

जूते-जूते का फर्क

जब कभी हम छोटे-छोटे बच्चों को लड़ते देखते हैं तो उस लड़ाई में कभी-कभी बच्चों द्वारा एक दूसरे पर जूता फेंकते हुए भी देख लेते हैं। जूता फेंकते वक्त वे बच्चे उस जूते की अहमियत भूल जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि वे जूते किस कम्पनी के हैं? शायद तुर्की की बेदान शू-कम्पनी के तो नहीं। और यदि हों भी तो उन बच्चों पर क्या फर्क पड़ता है। लेकिन इराकी पत्रकार मुंतजर अल जैदी द्वारा मॉडल नम्बर २७१ के इस कम्पनी के जूते ने पूरी दुनिया में हल्ला रखा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति बुश पर फैंके गए इस जूते से वो फर्क आ गया है जो बच्चों ने कभी अपनी लड़ाई में एक-दूसरे पर फैंके थे। खैर, वो तो बच्चें हैं लेकिन जैदी तो नहीं! वह उससे क्या सिद्ध करना चाहते थे? कहीं यह तो नहीं कि कम्पनी का यह जूता कितना मजबूत है? उनकी इस टेस्टिंग में वे जूते इतने मजबूत निकले कि शू-कम्पनी के मालिक रमजान बेदान को अपनी कम्पनी में १०० अतिरिक्त कर्मचारी रखने पड़े। आख़िर मॉडल नम्बर २७१ के उस जूते की जो बुश पर फैंका गया था मांग जो बढ़ गई। लेकिन बच्चों के जूते बनाने वाली कम्पनी पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह तो जूते-जूते का फर्क है। इसी बात पर मैंने अपने एक दोस्त से हँसते हुए पूछा,"यार क्या तेरा जूता बेदान कम्पनी का है?" तो उसने भी हँसते हुए जबाव दिया,"क्या अमेरिकी राष्ट्रपति बुश अपने देश में आ रहें है?" उसका यह जबाव सुनते ही मैं चौंक गया। फिरउसने अपने जबाव को स्पष्ट करते हुए बताया कि मैं तो सिर्फ़ यह देखना चाहता हूँ कि बुश के आने पर होने वाली प्रेस वार्ता या किसी मीटिंग में कितने लोग जूते पहन कर आते हैं? उसकी यह बात सुन कर मैं मन ही मन मुस्कुराया।
खैर जो भी हो मुंतजर अल जैदी द्वारा बुश पर फैंका गया जूता ऐसे चला कि पूरी दुनिया में राजनीतिक और मीडिया सड़कों पर ट्रैफिक लग गया। जूते कि महिमा जो निकली। कुछ भी हो जूता तो होता ही चलने के लिए है। पैरों में पहनो तो भी चलता है और हाथ में ले लो तो भी। यही नहीं आजकल तो राजनेता भी अपनी राजनीति चलाने के लिए भी जूतों का सहारा लेते हैं। जैसे बसपा प्रमुख मायावती ने लिया था," तिलक,तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार।" यही नहीं राजनीतिक पार्टियों कि सभाओं के दौरान तो कभी-कभी जूता ऐसे चलता है कि जैसे मानो इसका समझौता राजधानी एक्सप्रैस से हो गया हो। ताबड़-तोड़ जूतों की लड़ाई होती है लेकिन वे जूते किस्मत के मारे होते हैं जिन्हें जैदी के जूतों के बराबर प्रसिद्धि नहीं मिलती।