Friday, November 10, 2017

एक झक्कास सा लौंडा चाहिए...शादी के लिए


    पहले मैं यहां एक बात क्लियर कर दूं। शादी का सीजन है। इसलिए दिखावे पर मत जाना...अपनी अकल लगाना। हमारे पड़ोस के शर्माजी हैं। सूखे से। जोर से फूंक मार दो तो उड़ जाएं। वो मकर संक्रांति पर पतंग नहीं उड़ाते। एक दिन गिरने से बच गए। बोले- हवा का झोंका तेज था। 


     और उनकी शर्माइन हैं। बिल्कुल माधुरी दीक्षित। हां जी। सई के रियाऊं। माधुरी की बहुत बड़ी फैन हैं। चॉकलेट, लाइमजूस, आइसक्रीम, टॉफियां...वो अभी भी सब खाती हैं। कहती हैं- वक्त बदला है, मैं नहीं। और उस घर में है उनकी सुंदर सी...। रुको। सुंदर सा शब्द सुना नहीं और लार टपकने लगी। सुंदर सी के और भी अर्थ होते हैं जनाब...। वो सुंदर सी है उनके घर की कुतिया। सावधान...! 'कुतिया' शब्द के प्रयोग के लिए पेटा वालों से माफी मांग लेना। अब ये मत पूछना कि पेटा वाले कौन...। गूगल बाबा की मदद ले लो। जवाब के साथ आशीर्वाद भी दे देंगे। ज्ञान का भंडार है उनके पास।
    

    उनके घर एक और सुंदर फीमेल है। हां...। अब सही जा रिएओ मियां। शर्माजी की सुंदर सी बेटी। कुछ सोचने से पहले जनता कृप्या ध्यान दे। दिमाग की बत्ती तीन वाट की एलईडी से ज्यादा जली, तो वो उठाकर पटक देगी। ब्लैक बेल्ट धारी है वो। कराटे में। चों...हेकड़ी निकल गई। निकल गई हेकड़ी। शर्माजी अपनी बेटी की शादी के लिए एक झक्कास का लौंडा ढूंढ़ रहे हैं। पड़ोसियों को भी विज्ञापन वाली खबर दे दी। कुछ रिश्ते आए भी हैं। यकीन नहीं मानोगे। रिश्ते कम, लौंडे ज्यादा आए। झक्कास वाले नहीं।
 

    एक भाई साहब सुबह-सुबह आ गए। कंधे पर बैग टांगे हुए। मेट्रो स्टेशन से सीधे घर पहुंचे। घंटी बजाई। यहां एक बार फिर से सावधान...! यहां अक्षय कुमार नहीं थे, जो बोलते- तुम घंटी बजाओ मैं......। तुम भी खाली जगह छोड़ दो। खबरें पढ़ते होगे तो समझ गए होगे। काम की बात पर आते हैं। घंटी बजते ही अंदर से सुरीली आवाज आई। अहा...! फिर दिमाग की एलईडी जली। सुनो, कुतिया की आवाज आई...। कान-फ्यूज। थोड़ी देर बाद शर्माजी ने दरवाजा खोला। इतनी देर में बेचारा वो व्यक्ति 50 सिगरेट पी गया। गंदी सोच। टोपा हो का...। स्मॉग में बाहर खड़ा था। दिल्ली की प्रदूषित हवा में। समझे मास्टर जी।
 

    शर्माजी ने छोटे से इंट्रोडक्शन के बाद उस बेचारे को अंदर बुला लिया। बातचीत शुरू हुई। बोले इंजीनियर हैं। सुबह जाते हैं। रात को आते हैं। शर्माजी ने पूछ लिया। इतने टाइम करते क्या हो? इंजीनियर साहब बोले- मीटिंग, काम कम काम की बातें ज्यादा, काम की फिक्र ज्यादा, जो काम करता है उसके ऊंगली करना और जो नहीं करता है उसकी बॉस से शिकायत करना...। घर में सन्नाटा छा गया।
 

    शर्माजी हैरान परेशान। सोचने लगे कैसा लौंडा है ये। इससे तो इंदौर वाला ही ठीक था। पोहे-जलेबी बेचता था। जीरावन डाल के। अच्छा-खासा कमा लेता था। सुबह-सुबह ग्राहकों की लाइन लगी रहती थी। पांच-छह घंटे के काम के बाद आराम से घर पर। फिर मौज करो या मस्ती। मेरी बेटी भी उसके साथ खुश रहती। तभी इंजीनियर साहब का मोबाइल बज गया। हम तुम्हे चाहते हैं ऐसे...। यह मोबाइल की रिंगटोन थी। नजर उनकी बेटी पर पड़ी। थोड़ से मुस्कुराए। बेचारी शर्माजी की बेटी का बुरा हाल था। बहुत देर से सहन कर रही थी। इंजीनियर साहब मोबाइल उठा पाते, उससे पहले ही सुंदर सी बेटी उखड़ गई। बोली- उठ...। खड़ा हो...। भाग जा यहां से। मुझे नहीं करनी तुझ जैसे लौंडे के साथ शादी। मैं हैप्पी हूं और हैप्पी भाग जाएगी।

Monday, February 20, 2017

वेद प्रकाश शर्मा...सफेद कार पर हाथ रखकर तुम्हारा खड़े होना...वो तस्वीर आज भी जहन में है

          अगर आप 70-80 के दशक में पैदा हुए हैं और नॉवेल पढ़ने का शौक रहा है, तो वेद प्रकाश शर्मा के नाम से वाफिक होंगे। मेरा जन्म 80 के दशक में हुआ और वेद प्रकाश शर्मा को अच्छे से जानता हूं। और उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘वर्दी वाला गुंडा’ को तो बिल्कुल नहीं भूल सकता। हालांकि वो बात अलग है कि अब उसकी स्टोरी याद नहीं है, लेकिन ये श्योर है कि उसे पढ़ने में मुझे करीब एक सप्ताह लग गया था।
          बाद उस दौर की है जब मेरी उम्र 12-13 साल की थी। वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास ‘वर्दी वाला गुंडा’ उस समय नया-नया मार्केट में आया था। इस नॉवेल के लिए लोगों की दीवानगी देखते ही बन रही थी। एक दिन मैं अपने घर के आंगन में परिवार के साथ था। पापा एक किताब लाए। उसमें वेद प्रकाश शर्मा का उनकी शोहरत से संबंधित एक आर्टिकल छपा था। पापा वेद प्रकाश शर्मा की तस्वीर की ओर इशारा कर मुझे दिखाते हुए बोले- राजेश, इन्हें जानते हो?
          मुझे उस समय नहीं पता था कि यह शख्स कौन है। इसलिए मैंने पापा को मना कर दिया। मैंने वो आर्टिकल नहीं पढ़ा था, लेकिन तस्वीर अभी भी जहन में है। उस तस्वीर में वेद प्रकाश शर्मा अपनी सफेद रंग की कार पर हाथ रखकर खड़े हुए थे। उनके चेहरे की मुस्कुराहट उनके आत्मविश्वास को बता रही थी। उस समय नहीं पता था कि लुगदी कागज का यह लेखक आगे चलकर महान नॉवेलिस्ट बनने वाला है। वेद प्रकाश शर्मा के ही एक प्रशंसक मेरी ही कॉलोनी में रहने वाले एक भईया भी थे। मैंने उन्हें वेद प्रकाश शर्मा के नॉवेल किताबों की दुकान पर पढ़ते हुए देखा है।
          यह वो दौर था, जब बुक सेलर किताबों या नॉवेल को बेचते थे या पहचान वाले व्यक्ति को किराए पर देते थे। यदि जान-पहचान नहीं है, तो आपको उसकी ही दुकान पर बैठकर पढ़ना होगा। और जनाब...लुगदी वाले नॉवेल एक दिन में नहीं पढ़े जाते थे, वे नॉवेल समय मांगते थे। उनमें एक क्यूरिसिटी होती थी। एक रोमांच होता था। कैरेक्टर्स के दिमाग में काल्पनिक चित्र बनते थे। शब्दों में लिखा एक्शन फिल्म की तरह दिमाग में चलता था।
          समय गुजरता गया। उम्र भी बढ़ती गई। करीब बीस साल बाद वेद प्रकाश शर्मा फिर से चर्चाओं में थे। लेकिन दुखद समाचार के लिए। वो अब इस दुनिया में नहीं रहे। आपके जाने के बाद आपके बारे में बहुत सारा पढ़ा। सोचा बहुत सारा लिखूं। लेकिन अतीत के झरोखों को याद कर शब्द कम पड़ गए। रह-रहकर तुम्हारी वही कार वाली तस्वीर जहन में और चेहरे की मुस्कुराहट आंखों के सामने आ रही थी। इन बीस सालों में मैंने कई उपन्यास पढ़े। लुगदी वाले उपन्यास समेत आज के दौर के कई लेखकों के बारे में भी पढ़ा। नॉवेल की कहानी पर फिल्में आज भी बनती हैं। लेकिन कोई वेद प्रकाश शर्मा नहीं बन पाया और न ही बन पाएगा।
          अंतिम लाइन...भगवान आपकी आत्मा को शांति दे। आपके उपन्यास आगे भी पढ़े जाएंगे।

Wednesday, September 7, 2016

बारिश के बीच 90 मिनट

          ‘क्या...? फुटबॉल खेलने चलना है...? ऐसी बारिश में...?’ जिंदगी में पहली बार फुटबॉल खेलने के लिए मेरे मुंह से निकले ये पहले शब्द थे। उस उम्र में नहीं पता था कि फुटबॉल कितनी देर के लिए खेला जाता है। इसकी एबीसीडी क्या होती हैं? वगैरह...वगैरह..। बस ये पता था कि फुटबॉल को लात मारनी है और एक बिना जाल वाले घेरे (गोल पोस्ट) के अंदर पहुंचानी है। बिना जाल वाला इसलिए कि बस फुटबॉल खेलना था...टूर्नामेंट नहीं।
          ‘जूते नहीं पहनेगा क्या?’, मेरे एक साथी ने मुझसे पूछ लिया।
          ‘नहीं यार...गिर गया तो...?, मैंने भी अपने होठों को अंग्रेजी के लेटर ‘ओ’ का आकार बनाते हुए कह दिया (सॉरी...लेकिन आप ये आकार न बनाएं। अजीब लगता है)। टीम कितने लोगों की होती है, यह भी नहीं पता था। क्रिकेट थोड़े ही खेलने जा रहे थे, जो साथ चलने वाले दोस्तों से बोलना पड़ता, ‘अरे यार 22 में दो की कमी है। कौन नहीं आया...? सोनू और रवि तो हैं ही नहीं। चलो उन्हें भी बुलाकर लाते हैं।’ यह फुटबॉल है जनाब और अभी क्रिकेट की तरह हम भारतीयों की नसों में नहीं घुसा है। शायद थोड़ा समय लगेगा...शायद ज्यादा...!
          खैर, उस दिन हम बच्चों और बड़ों की टीम में कितने सदस्य थे यह तो नहीं पता। बस इतना पता है कि हमने एक दोस्त की फुटबॉल ली और बारिश में भीगते हुए कुछ दूरी पर मौजूद मैदान पहुंच गए। बारिश की बूंदों के बीच टीम का बंटवारा हो चुका था। उम्र और लंबाई में बड़े कुछ लोग बच्चा पार्टी के साथ आधे-आधे बंट गए थे। गेम शुरू हो चुका था। खेलने के नियम-कानूनों से अनजान लक्ष्य बस एक था। बॉल (चलो ठीक है...फुटबॉल) को पैरों से मारते बस इतना करना था कि वह दूसरे छोर पर मौजूद दो र्इंटों के बीच में से निकल जाए। र्इंटों के बीच से निकल जाए...! हां, क्योंकि हमारे लिए वहीं गोल पोस्ट थीं।
          आसान सा दिखने वाला काम आसान नहीं था। न मेरे लिए और न मेरे बाकी साथियों के लिए। विकेट और रनों की पिच पर दौड़ने वाले पैर फुटबॉल पर थे। बस दौड़ना था। बारिश की बूंदों के बीच। 90...80...70...कितने मिनट...पता नहीं। चेहरे पर हंसी आने तक खेलना था। और हंसी तभी आती थी, जब फुटबॉल र्इंटों के बीच में से पार हो जाती थी। जीतने का अंतर क्या था, यह भी नहीं पता था। क्योंकि जीत मैच के बाद हो रही चर्चाओं में शामिल थी। वह चर्चा जो बारिश की बूंदों के थमने के बाद शुरू हुई थी।
          ‘तुझसे तो भागा ही नहीं जा रहा था।...और देखो मार कहां रहा था और फुटबॉल जा कहां रही थी...।’ मैच के बाद हमारी चर्चाओं में से एक लाइन ऐसी भी थी। कौन जीता...? पता नहीं। कौन हारा...ये भी नहीं पता। बस एक चीज पता थी। बारिश के बीच फुटबॉल खेलते हुए वो 90 मिनट (काल्पनिक) जिंदगी के सबसे खुशनुमा पलों में से एक थे। वे पल जो अब कहानी का रूप ले लेते हैं। वे कहानियां, जो या तो किताबों में सिमट जाती हैं या इंटरनेट की दुनिया में खो जाती हैं। और जब कभी किसी प्लेटफॉर्म की ओर से ऐसे पलों को जिंदा करने के खास मौके मिलते हैं, तो ये कब्र खोदकर खुशी-खुशी बाहर आ जाते हैं।

Friday, August 22, 2014

स्कूल और जिंदगी का कैमिकल लोचा

कैमिकल यानी एसिड किस चिड़िया का नाम होता है, बचपन में इससे बिल्कुल अनजान थे। प्राइमरी स्कूल की आजादी से सेकेंडरी स्कूल के सख्त नियमों में कैद हो चुके थे। पानी पीने के लिए क्लास से कुछ दूर लगे हैंडपंप के पास जाना पड़ता था। यह हैंडपंप 11वीं-12वीं क्लास के स्टूडेंट्स की कैमिस्ट्री लैब के सामने स्थित था। जैसे ही उस हैंडपंप पर पानी पीने के लिए जाते थे, ऐसा लगता था जैसे मानों किसी ने नाक में छुरी डाल दी हो। सांस लेने और पानी पीने के लिए सिर्फ मुंह ही सहारा होता था। लैब के दरवाजे और खुली खिड़कियों से अंदर झांककर यह देखने की कई बार कोशिश की कि आखिर नाक में छुरी जैसी चलने वाली बदबू आने का क्या कारण है। लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात जैसा रहा। कुछ दोस्त यह कहते थे कि यह कैमिस्ट्री लैब है। यहां बड़ी क्लास के स्टूडेंट प्रयोग करने आते हैं। मन में यही था कि हम कब बड़े होंगे और इस लैब में आकर इस बदबू का कारण खोजेंगे। लेकिन सोचते थे कि बेटा इसके लिए कम से कम पांच साल इंतजार करना पड़ेगा।

तीन साल बाद कक्षा नौवीं में आने के दौरान आर्ट्स, कॉमर्स और साइंस ग्रुप में से किसी एक का चुनाव करना था। विजन साफ था...साइंस। क्लासें लगना शुरू हो गई थीं। फिजिक्स और कैमिस्ट्री पढ़ाने की जिम्मेदारी एक ही टीचर को मिली थी।

‘कल सभी बच्चे प्रैक्टिकल की बुक ले आएं। परसों से प्रैक्टिकल क्लासें चलेंगी। और हां, ये क्लासें लैब में होंगी’, साइंस पढ़ाने वाले टीचर ने क्लास में बैठे सभी स्टूडेंट्स से कहा।

सर की यह बात सुनकर उत्सुकता तो बढ़ी थी, लेकिन उतनी नहीं थी जितनी 11वीं-12वीं की कैमिस्ट्री लैब में जाने की थी। 9वीं-10वीं क्लास के स्टूडेंट्स की प्रैक्टिकल लैब 11वीं-12वीं क्लास के स्टूडेंट्स की प्रैक्टिकल लैब के मुकाबले छोटी थी। लेकिन उत्सुकता थी लैब और एसिड नामक चिड़िया को देखने की।

‘यार ये दिल (डीआईएल) और कॉन्स (सीओएन) का मतलब क्या है?’, एसिड नामक चिड़ियाओं को देखने के बाद मैंने अपने ही एक दोस्त से सवाल पूछा।

जब मैं पहली बार लैब में घुसा था, तो वहां पारदर्शी कांच की बहुत सारी बोतलों में भिन्न-भिन्न एसिड भरे हुए थे। मैं सिर्फ कुछ एसिडों के बारे में जानता था। अधिकतर का मैंने नाम तक नहीं सुना था। इनमें से कुछ बोतलों पर एसिड के नाम के साथ अंग्रेजी में डीआईएल और सीओएन लिखा हुआ था। दरअसल एसिड दो रूप में होता है- तनु और सांद्र। तनु को अंग्रेजी में डायल्यूट और सांद्र को अंग्रेजी में कन्संट्रेड कहते हैं। डीआईएल डायल्यूट की शॉर्ट फॉर्म और कॉन्स कन्संट्रेड की शॉर्ट फॉर्म होती है। दिल और कॉन्स के बारे में मेरे दोस्त को भी कुछ नहीं पता था। आखिर कुछ समय बाद मैंने इसके बारे में पता लगा लिया।

एसिड नामक इन चिड़ियाओं को छूने में भी डर लग रहा था। सुना और पढ़ा था कि अगर एसिड नामक चिड़िया काट ले, तो वह स्थान जल जाता है। मुझे अपनी जिंदगी के जलने से डर लग रहा था। कक्षा छठी में पढ़ने के दौरान आने वाली बदबू के बारे में मैं 11वीं में उस लैब में आने से पहले ही जान गया था। मैं समझ गया था कि एसिड नामक चिड़िया से आने वाली यह बदबू आगे चलकर जिंदगी को एक संदेश देने जा रही थी।

अब वर्तमान में आते हैं-
उम्र का 30वां पड़ाव पार करने के बाद कुछ चीजों का अहसास होने लगा है। बचपन में डराने वाला एसिड आज जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया है, या ये कहें कि जिंदगी कैमिकल लोचा हो गई है। एसिड का नाम सुनते ही कई बार इसकी शिकार बन चुकीं लक्ष्मी जैसी कई युवतियों का चेहरा सामने आ जाता है। संघर्ष से शुरू हुई जिंदगी आज भी संघर्ष पर ही है। लेकिन न हारने वाली हिम्मत शरीर को नई ऊर्जा दे जाती है। जब जिंदगी जीने का नाम है, तो समाज से छिपकर क्यों जीएं। लोगों को प्रेरित करें कि वो इन बुराइयों से लड़ें और जिंदगी को नए अंदाज में खुलकर जीएं।

Wednesday, August 6, 2014

अलविदा प्राण साहब...दिल में रहेंगे चाचा चौधरी और साबू

आंखें भर आने का राज किसी को नहीं पता था। आॅफिस में साथियों की बातें सिर्फ सुन रहा था। दिमाग में कार्टूनिस्ट प्राण साहब के बनाए हुए किरदार चाचा चौधरी, साबू, बिल्लू, पिंकी, रॉकेट आदि चल रहे थे। नजर सामने रखे कंप्यूटर पर थी। वह कंप्यूटर, जिसके बारे में आज से करीब 20 साल पहले प्राण साहब की ही कॉमिक्सों में सुना था। प्राण साहब की उन कॉमिक्सों के बीच कहीं लिखा होता था, ‘चाचा चौधरी का दिमाग कंप्यूटर से भी तेज चलता है।’ उस समय नहीं पता था कि कंप्यूटर किस बला का नाम है। बच्चा बुद्धि यही सोचती थी कि शायद फर्राटे मारने वाली कोई कार होगी। आज उसी कंप्यूटर के सामने प्राण साहब के निधन की खबर पढ़कर दिल भर आया।

प्राण साहब, पिछली बार आपकी कॉमिक्स कब पढ़ी थी, यह तो याद नहीं, लेकिन इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग की दुनिया में आपका जिक्र अक्सर हो जाता है। बचपन में जब कभी अखबार में ज्वालामुखी के फटने की खबर पढ़ते थे, तो लगता था कि साबू को गुस्सा आ गया है। बारिश के मौसम में जब साबू चाचा चौधरी को कंधे पर बिठाकर ले जाता था, तो उस समय चाचा चौधरी बादलों के ऊपर होते थे और बारिश उनके नीचे। अपने बचपन की टोली में कई बार इस बात का भी जिक्र छेड़ देते थे कि एक दिन हम भी साबू के कंधों पर बैठेंगे।

आज जब भी मंगल ग्रह या ज्यूपिटर से संबंधित कोई खबर पढ़ता हूं, तो लगता है कि वहां साबू होगा। यह जानते हुए भी कि आज बचपन की उस नादान उम्र से काफी आगे निकल आया हूं। लेकिन सोचता हूं...क्या हुआ, बचपन को याद तो किया जा सकता है।

स्कूल और घर में अक्सर लोग पढ़ाकू समझते थे। लेकिन हम कितने पढ़ाकू थे, यह बस हम ही जानते थे। स्कूल की किताबों के बीच में रखी चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी आदि की कॉमिक्सों को पढ़कर हमारा मुस्कुराना और हंसना हमारे लिए सबसे बड़ी दौलत हुआ करती थी। 50 पैसे में सुबह से लेकर शाम तक और एक रुपए में पूरे दिन के लिए आपकी कॉमिक्स किराए पर लाते थे। आपकी उन कॉमिक्सों को रखने की जगह हमारा स्कूल का बस्ता होता था। रात को उसमें कोई कॉमिक्स नहीं रखते थे। डर रहता था कि कहीं मम्मी ने देख ली, तो फिर हमारी खेर नहीं।

प्राण साहब, आपके इस दुनिया से जाने के बाद अब चाचा चौधरी का दिमाग कंप्यूटर से तेज नहीं चलेगा, साबू को गुस्सा नहीं आएगा, राका फिर से जिंदा नहीं होगा। प्राण साहब, हमारे बचपन को नई खुशी देने और उसे और मनोरंजक बनाने के लिए शुक्रिया शब्द बहुत छोटा है। आप हमारे दिल में थे, दिल में हो और दिल में रहोगे।

...अलविदा प्राण साहब।

Tuesday, November 5, 2013

Sachin's retirement : It makes difference...

I don't remember exactly, when and where I heard Sachin Tendulakr's name first time. It was the time of 1996 cricket world-cup championship, when I had fallen of love cricket. That time Sachin had been playing for seven years for India. At that time I was in 8th standard. During that time, there was no TV set at my home. I used to go to watch India cricket match at a video game shop, which was little far from my home. At that time, I did't know name of Indian cricketers, excepts, Kapil Dev, but at that time he had been retired.
Within two years- in 1998- I had learnt not only all Indian player's name even ABC of this game. At that time me and cricket had become like magnetic opposite poles. We both were attracting towards each other. In this year Indian team went in Sharjah to play coca-cola cup tournament. There were three team in that tournament, India, Australia and New Zealand.
I have sweet memory of that tournament, specially for two matches of India against Australia. First match, when Indian team was fighting to assured ticket to final and second was, winning of final.
First, when Indian team was fighting : It was day-night match. It had been dark. Indian team was chasing the score which was set by Australia to win that match. India needed either win that match or became better run rate against New Zealand to reach final. Australia had already taken ticket of final. There was no electricity at that time, when Indian team was chasing the score. I went to a market (Bansal market) to watch that match. I was able to hear the irritating sound of electric generator set. There was a big ground in the market. I entered in that market. It was full of cricket fans. All shops were closed, excepts one. The shop, which was opened, there was a TV set just out of that shop. All cricket fan were watching cricket match on that TV. I had become one of them. Sachin was on the pitch. Hope was alive for Indian Team to reach the final. Sachin was hitting the ball brutally. People were hooting on every six and four of Sachin with joy. It was Sachin's storm, Indian team ensured final ticket. Sachin scored ton in that match and became player of the match.
...And Indian won the final : Just after winning that match, a big task was left for Indian cricket team. It was winning the final. Australia bat first and set the tough task for India to win that final. But it's was again Sachin's storm. Sachin scored again ton and India won the final. Sachin got not only player of the match award, even became player of the tournament.
Cover story in India Today : After few days, a cover story was published in India Today, Hindi Edition magazine (May be in English edition, but I don't know exactly). Sachin had become hero of Indian cricket team. Sachin's name was on every cricket lover's tongue. I had also become Sachin's fan. Often, I used to listen passing through the road during any Indian cricket match, 'oye, score chhod or ye bata ki Sachin ne kitne banaye? (Hello, leave the score and tell me, how much Sachin scored?).' I know, after November, 18 we will not hear this voice. Sachin has announced his retirement. I know, this day comes in every cricketer's life.
Sachin, after playing around 24 years and set uncountable milestone, nobody wants to leave you. But we know, one day you will have to leave this energetic game. We can't forget you...your game...your shot...and your passion. We will also watch cricket match after your retirement, but without you it makes difference...

Saturday, October 12, 2013

Sleepy eyes...

It was winter season. There was cold air outside my room, but it was not cool as Dilli ki Sardi. Anyhow I could open my eyes. I had set alarm in my both mobile and kept beside my pillow.
My room partner came to me and said, 'Rajesh, get up. Your both alarm are buzzing.'
I put up my both mobile and stopped the alarm. It was around 6.00 am and 10.05 am was my flight departure schedule from INDORE to DELHI. It was too early to get up for me. Actually, when you get back to your home from your office around 1.00 or 2.00 am and go to bed around 3.00 am, so it's hard nut to crack open your sleepy eyes after three hours.
After few minutes, my mobile buzzed. I picked it up and saw on the screen. It was unknown number. I received it.
'Hello.', I said.
'Sir, I have come at Atal Dwar. How far and in which direction I'll have to come for you home?', cab driver asked me.
It was cab driver's call. I called him last night to drop me at airport.
After taking direction from me, finally cab driver had reached at my home, where I lived on rent.
'Brother, you will have to wait for 30 minutes. I am getting ready', I said to cab driver standing at my balcony.
'OK', cab driver replied.
Still, I was fighting with my eyes. Without having bathed, I just washed my mouth, dressed, picked the bag and headed to the cab.
'How much?', I asked about fare to cab driver.
'200 bugs Sir', driver replied seeing me through the mirror, which was fitted near him.
I reached at airport one hour before check-in time. I was too early. After entering from the departure gate, I went to coffee shop. Still I was resisting with my sleepy eyes. Besides it, I was feeling hungry, because I could not have breakfast.
'Give me a hot coffee', I said to the boy, which was standing in the coffee shop.
'50 bugs', he said to me.
I paid him, took the coffee and went back to the chair to enjoy the coffee.
After few minutes, IndiGo employee came to me and said, 'Sir, has your boarding pass been done?'
'No.', I replied.
She asked my again about my ticket.
'Will window seat be available?', I asked to the smart lady with pink lips after showing my ticket.
'Sir, I'll have to check.', she said to me with a killing smile.
'Yes sir, window seat is available.', she said.
I took boarding pass from her. After giving me a killing smile again, she turned to another travellers.
Tum ho sath mere...sath mere ho tum yun.... the song was set as my one mobile ringtone started buzzing.
'I have rung you many times. Where are you?', I shouted at my friend after receiving my mobile.
'Sorry, I was sleeping, so I couldn't pay attention at your call.', she replied me in sleepy voice.
Actually, there was a marriage in my female friend's relative family. My female friend's relative family was not closed to me. On the invitation of my female friend, I was going there to attend the marriage. They live in Rohini in New Delhi. But I did't know where they live in Rohini exactly.
'OK, give me your relative family address', I said to my friend.
She sent me address of her relative through the message, where the marriage ceremony was going to be held. I finished my coffee and moved for security checking.
'Hello, are you going Delhi?', a person came to me and asked.
I was passed through security check and sitting in the lounge. He was unknown for me.
'Yes', I replied with fake smile.
At that time I was reading newspaper.
'OK. Are you from Delhi?', he fired one more question upon me.
Irritatingly, I replied, 'NO'
To quote my final words in the conversation, I turned my eyes towards him and replied, 'Actually, I am from KHURJA which is near to DELHI.'
Till than, he spoiled my all attention of newspaper.
'Hello, myself.... I am from Indore', he said to me.
'But, your language doesn't belongs to INDORE', I marked a question mark on his face.
'Actually, basically I am from BIHAR and I have been living in PITHAMPUR for years', he replied removing that question mark. PITHAMPUR is near to INDORE.
To keep the conversation more intact he said, 'My flight schedule was around 8.30 am, but I missed it, because I couldn't get up on the right time'.
'Oh no, it's so bad', I condoled him.
'There is my meeting schedule in GURGAON at 12.00 pm. Now it is not possible to reach there on right time.', he said again.
'Ya, I know. After reaching in Delhi at 11.30, it will not be possible to reach at GURGAON.', I replied him
'Bye-the-way, what you do?', I asked him again.
'I have my own business for which I have to travel many cities frequently.', he said proudly.
In flight, he was sitting beside me. Our conversation was going on continuously.
'Give one masala potato stick and one masala tea for me and one masala tea for him.', I said to air hostess pointed to that person who was sitting beside me.
'Sorry sir, masala potato stick is not available. Will salted potato stick do?', air hostess asked me.
'Yes, it will do.', I replied with a normal smile.
Our destination was about to come. Few minutes were left. At that time I had finished my tea and kept the box of remained potato ticks in my bag.
Finally, our flight had touched the soil of Delhi airport.
As I switched on my both mobile, I received many massages one by one. I dialled one number of them.
'Have you come in Delhi?', my friend asked me from another side.
'Yes, I have come. My flight arrived just now. I will be at you within two hours.', I said her in one breath.
'OK Mr. Bharti, this is my visiting card. Call me for maintaining our friendship.', he said to me after leaving the airport.
Now, I was not feeling sleepy, because I was in the arms of my favourite city...Delhi.
Within two hours, I had reached at my friend's relative home. She was waiting for me at the main gate of her relative colony.
After spending whole day at her relative home with few known and few unknown person, now I was feeling tired. It was late evening and weather was more cold than Indore. I asked to my friend to bring a hot blanket. I told her that I have been tired and feeling sleepy.
'You can sleep here and nobody will disturb you.', after taking me on the top floor she told me pointed out to the one room.
'Thanks dear.', I replied taking a deep breath.
Not only me, even my eyes were also in relax condition. After laying on the bed I went to deep sleep and were not feeling sleepy...