वैसे तो मैं ज्यादा मेले देखने नहीं गया हूँ। मेरे शहर खुर्जा में साल में तीन मेले लगतें हैं। पहला रामलीला का मेला, दूसरा नवरात्री का और तीसरा सावन का मेला। तीनों मेलों का अपना अलग-अलग महत्व है। इन मेलों के अतिरिक्त मैं मुरादाबाद में नुमाइश देखने गया हूँ। जिसका अपना महत्व है। लेकिन जब मैं फरवरी २००९ में फरीदाबाद का सूरजकुंड का मेला देखने गया तो वहां जाकर मुझे लगा कि यह कोई मेला नहीं बल्कि एक ऐसी दुनिया है जिसमें लोगों की संस्कृति को दर्शाया जा रहा है। अपने देश के विभिन्न राज्यों के अलावा विदेशों से आए शिल्पकारों ने अपनी कला के जो नमूने पेश किए उन्हें देख कर मैं दंग रह गया।
चूँकि मैं अपने संस्थान की तरफ़ से अपने दोस्तों के साथ गया था। लेकिन वहां पहुँचने के बाद गाँवरुपी सूरजकुंड का वह वातावरण जिसमें अलग-अलग स्टॉलों पर शिल्पकला का रंग बिखरा हुआ था देख कर आश्चर्य हुआ। मुझे यकीं नहीं आ रहा था कि हमारे देश में शिल्प कला ऐसे नमूने हैं जिन्हें देख कर कोई भी हिन्दुस्तानी गर्व से कह सकता है कि मुझे अपने देश पर गर्व है।
कहीं अँगुलियों पर नाचती कठपुतलियां तो कहीं संगमरमर में जड़ित रत्नों से बना ताजमहल। और बाइस्कोप को देखकर तो मैं दंग रह गया। मुझे याद है कि जब मैं कोई आठ-दस साल का था तब बाइस्कोप दिखाने वाला मेरी गली में आया करता था। और मैं मात्र २५ या ५० पैसे में बाइस्कोप देखा करता था। सूरजकुंड मेले में बाइस्कोप वाले को देख मुझसे उसे देखे बिना रूका नहीं गया। लेकिन उस दिन बाइस्कोप वाले ने बाइस्कोप दिखाने के दस रूपये लिए।
एक-एक स्टॉल उस राज्य की कहानी कह रहा था जहाँ से वह था। मध्य-प्रदेश थीम पर आधारित सूरजकुंड का यह मेला दर्शकों को चुम्बक के विपरीत सिरों की तरह अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। कहीं राज्यों के लोक्न्र्त्यों पर थिरकते कदम तो कहीं नगाड़ों पर उठते पैर। इस मेले में मेरे लिए सब कुछ था, कमी थी तो किसी ऐसे साथी की जो उस मेले को मेरे साथ देखता। दोस्त तो थे लेकिन साथी नहीं था। वहां से मैंने कुछ खरीददारी की। खरीदना तो बहुत कुछ चाहता था लेकिन वहां सामान की कीमतों के वजन के मुकाबले मेरे बटुए का वजन हल्का था।
शाम के समय हम लोग वहां से वापस आ गए। अभी भी वह मेला मुझे याद आता है। मैं शुक्रगुजार हूँ अपने संस्थान का कि उसने मुझे इस मेले के जरिये अपने देश कि उस संस्कृति से अवगत कराया जिससे मैं अभी तक महरूम था।