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Friday, March 13, 2009

आई-आईएमसी: तुम बहुत याद आओगे


दिल्ली में पढ़ने की मेरी तमन्ना शुरू से थी लेकिन किस्मत साथ न दे सकी। इंटर की परीक्षा पास करने के बाद मैंने एरोनोटिकल इंजीनियरिंग करने के लिए दिल्ली में फॉर्म भरा। दरअसल मैं स्पेस इंजिनीअर बनना चाहता था। मैं उस संस्थान में सेलेक्ट भी हो गया। लेकिन किस्मत ने मुझे खुर्जा में ही रहने दिया। बीएससी मैंने अपने शहर खुर्जा से ही की। २००६ में मैंने जामिया यूनिवर्सिटी से एमबीए, एमसीए आदि की परीक्षा दी। लेकिन सफल नहीं हो पाया। २००७ में जामिया से ही पत्रकारिता करने के लिए लिखित परीक्षा दी। लिखित परीक्षा में सफल हुआ। इंटरव्यू के लिए कॉल आई। लेकिन फ़िर वही किस्मत। इंटरव्यू में सफल न हो सका।


लेकिन कहते हैं न कि जो होता है अच्छे के लिए होता है। २००८ में मैंने भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) की लिखित परीक्षा में बैठा। पास हुआ, इंटरव्यू के लिए कॉल आई। और आखिरकार मेरी किस्मत रंग लाई। मेरा दिल्ली में पढ़ने का सपना पूरा हुआ। आईआईएमसी में एक साल का डिप्लोमा मेरा मार्च में ख़त्म हो जायेगा और मेरी पढ़ाई भी।


आख़िर ऐसा क्या था दिल्ली में? मेरी किस्मत में आईआईएमसी की पढ़ाई लिखी थी। आईआईएमसी ने मुझे दिल्ली बुलाया और मेरी दिल्ली में पढ़ने की इच्छा पूरी की। आज जब मेरी पढ़ाई पूरी हो चुकी है और आईआईएमसी छोड़ने का समय जैसे-जैसे करीब आ रहा है, मेरे दिल की धड़कनें तेजी से बढ़ रहीं हैं। आईआईएमसी ने दिल्ली में मेरे जीवन के लिए वो महत्वपूर्ण चीजें दीं जिन्हें मैं कभी नहीं भूला पाऊँगा। आईआईएमसी ने जहाँ मुझे अपने देश की विभिन्न संस्कृतियों से अवगत कराया वहीं कभी ना खत्म होने वाली यादें दीं, दोस्त दिए और ऐसे टीचर दिए जो हमारी सहायता के लिए दिन-रात तैयार रहते हैं।


आईआईएमसी से जुड़ी वैसे तो बहुत सारी बातें हैं जिन्होंने मेरी जिंदगी को बदल कर रख दिया। खट्टे-मीठे अनुभव भी मिले। आईआईएमसी ने मुझे जिंदगी के वे मायने सिखाये जिनसे मैं अभी तक अज्ञान था। आईआईएमसी से जाने का मन तो नहीं कर रहा लेकिन मजबूर हूँ। जाना तो पड़ेगा ही एक नई सोच के साथ, एक नई उमंग के साथ, एक नए जोश के साथ। आईआईएमसी से नौ महीने की दोस्ती इतनी गहरी जो जायेगी ऐसा मैंने सोचा तक नहीं था। आज इस दोस्त से बिछड़ने का गम तो है लेकिन मैं भगवान का शुक्रिया अदा करता हूँ कि उसने मुझे इतना अच्छा दोस्त दिया। और मेरा सपना भी पूरा किया।

Thursday, March 5, 2009

रॉकेट साइंस-रॉकेट साइंस

मैं यहाँ आपकी विज्ञान की क्लास नहीं लूँगा। और न ही रॉकेट साइंस के बारे में बताऊंगा। लेकिन रॉकेट साइंस शब्द के बारे में जरूर बताऊंगा। यह वह शब्द है जिसे टीचर अक्सर मेरी क्लास में कहते रहते हैं। जब भी किसी विषय, टॉपिक या घटना के बारे में बताते हैं तो वे कहते हैं कि इसमें कोई रॉकेट साइंस नहीं है।

भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली में २८ जुलाई, २००८ से शुरू हुआ हमारा सत्र वैसे तो अब समाप्ति की ओर है लेकिन रॉकेट साइंस शब्द मेरी यहाँ की क्लासों में शुरू से ही सुनाई दे रहा है। हमारे संस्थान के पत्रकारिता पढ़ाने वाले टीचरों से लेकर गेस्ट फैकल्टी तक रॉकेट साइंस की बात करते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि आख़िर रॉकेट साइंस ही क्यूँ। वे या हम उस विषय की सरलता को प्रकट करने के लिए किसी और शब्द का भी नाम ले सकते हैं।

मैं आपको बता दूँ कि मैंने ग्रेजुएशन तक साइंस में पढ़ाई की है और यहाँ पत्रकारिता में यह शब्द सुनकर ऐसा लगता है कि मानों मैं साइंस की क्लास कर रहा हूँ। राजनीतिक, बिजनैस, खेल, कंफ्लिक्ट आदि की पढ़ाई करवाने वाले टीचर भी इस शब्द का प्रयोग करते हैं। वैसे मैं आपको बता दूँ कि रॉकेट साइंस इतनी भी कठिन नहीं है जितनी लोग समझते हैं।

एक वाक्य तो बहुत ही इंट्रेस्टिंग है। हुआ यूँ कि एक बार मैं क्लास कर रहा था। क्लास राजनीतिक पत्रकारिता की थी। एक टीचर हमें राजनीतिक सर्वे के बारे में बता रहे थे। किसी बात के दौरान उन्होंने भी रॉकेट साइंस शब्द का प्रयोग किया। अचानक मेरे दिमाग में आया कि किसी भी चीज से आसानी से बचने के लिए रॉकेट साइंस शब्द कितना आसान है। एक रॉकेट की तरह निकलने वाला यह शब्द वास्तव में रॉकेट ही है। किसी भी व्यक्ति के दिमाग में कुछ भी घुसाने के लिए बस कह दो, "यह कोई रॉकेट साइंस नही है।" तो आप समझ गए होंगे कि कोई भी चीज इस दुनिया में रॉकेट साइंस नहीं है।

Sunday, March 1, 2009

मेरी नव वर्ष की वो सुबह

प्रतीक्षा की रात की कशमकश, मत पूछ कैसे सुबह हुई
कभी एक चिराग जला दिया, कभी एक चिराग बुझा दिया

वैसे तो जिंदगी का हर दिन महत्वपूर्ण होता है लेकिन उस जिंदगी में कोई दिन या पल ऐसा भी होता है जो यादगार बन जाता है। ऐसे ही मेरे महत्वपूर्ण पलों में से एक पल था २००४ की नव वर्ष की सुबह का पल। ३१ दिसम्बर, २००३ की रात मैं सही ढंग से सो नहीं पाया था। इंतजार था अगली सुबह का। उस सुबह का जो मेरी जिंदगी को बदलने जा रही थी। उस समय मैं बी.एससी फर्स्ट ईअर का छात्र था। उस दिन सुबह मेरे ट्यूशन में न्यू ईयर की पार्टी थी। सुबह मैं जल्दी उठा और तैयार होकर पार्टी में गया।

ट्यूशन की पार्टी में पहुँचते ही मेरी नज़रों ने किसी को तलाश करना शुरू किया। तलाश उस लड़की की जिससे मिलने के लिए पार्टी एक बहाना थी। वैसे तो वह मेरे साथ मेरे ट्यूशन में ही पढ़ती थी। हम रोज़ मिल भी लिया करते थे। लेकिन बातें आंखों ही आंखों में होती थीं। आज मैं उसे न्यू ईअर की बधाई के बहाने मिलने जा रहा था। आखिरकार मेरी तलाश ख़त्म हुई। वह लड़की उस पार्टी में आई। उसके आते ही मेरे दिल की धड़कन तेजी से बढ़ने लगीं। पार्टी में मैंने उसे बधाई देने की लाख कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो सका।

पार्टी करीब दो घंटे तक चली। जब पार्टी ख़त्म हुई तो वह घर जाने लगी। वह अपने घर मेरे घर के रास्ते से होकर ही जाती थी। मैं भी उसके साथ चल दिया। उसको देखकर मुझे ना जाने क्या हो जाता था? मेरे दोस्त मुझे बताते थे कि मुझे प्यार हो गया है। क्या प्यार ऐसा ही होता है मुझे नहीं पता था। खैर जब वो लड़की जाने लगी तो रास्ते में मैंने उसे न्यू ईअर की बधाई दे ही डाली। लेकिन मुलाकात फ़िर न हो सकी। वह मेरी बधाई को लेकर मुस्कुराकर चली गई। और मैं भी अपने होंठों पर हल्की मुस्कुराहट लिए घर आ गया।

पॉँच साल बाद भी मैं उस सुबह का इंतजार कर रहा हूँ। आज वो लड़की जिससे शायद मैं मोहब्बत कर बैठा था मेरे साथ नहीं है लेकिन वह लड़की मुझे मोहब्बत करना सिखा गई। इस मोहब्बत बारे में मैं सिर्फ़ यही कहना चाहता हूँ--

मोहब्बत की तस्वीर को बहुत पास से देखा है मैंने ।
मत पूछो होती है कैसी बस उसे छूकर नहीं देखा है मैंने॥

Thursday, February 5, 2009

....और उजड़ गया आँगन का आँचल

बचपन, एक ऐसा समय होता है जिसमें हम अपनी सभी चिंताओं को भूलकर एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जिसमें सिर्फ मौज- मस्ती होती है। और उसी मौज-मस्ती में कुछ ऐसी प्राकृतिक चीजें होती हैं जिन्हें हम उम्र भर नहीं भूलते। मेरे बचपन में भी ऐसी ही एक प्राकृतिक चीज थी जिसे मैंने युवा अवस्था में कदम रखते ही खो दिया। वह था मेरे आँगन में लगा नीम का पेड़। वह नीम का पेड़ जिसके नीचे मैंने अपने बचपन के खट्टे-मीठे अनुभव लिए। उस पेड़ की पत्तियों को लहराते देख जहाँ मैंने हँसना सीखा वहीं उस पेड़ को अपना एक अच्छा दोस्त भी बनाया।

गर्मियों में मुझे अपनी छाँव देने वाला वह पेड़ सर्दियों में भी धूप के लिए अपनी बांहों रूपी टहनियों को खोल दिया करता था। कभी लंगड़ डालना तो कभी उसकी निबोलियों से खेलना। लेकिन वह पेड़ कभी नाराज नहीं होता था। माना कि पतझड़ के मौसम में उसके पत्तों से मम्मी कभी-कभी नाराज हो जाया करती थीं। लेकिन बसंत ऋतु के बाद के उस नए नवेले पेड़ को देख ऐसा लगता था कि मानों यह पेड़ फिर से एक नई पारी के लिए तैयार है। मुझे याद है जब मैं उस पेड़ कि नई कपोलों को यह सोचकर खाता थी कि इससे मेरा खून शुद्ध हो जाएगा। लेकिन उन कपोलों को खाने के बाद जो मेरे मुंह का जो हाल होता था उसे मैं आज तक महसूस करता हूँ।

बारह साल पहले उस पेड़ से मेरी दोस्ती हमेशा के लिए टूट गई। कारण जो भी रहा हो लेकिन आज वो नीम का पेड़ मेरे साथ नहीं है। सालों की वो दोस्ती इक पल में टूट जायेगी ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। लेकिन कहते हैं न कि उम्मीद भी उन्हीं से टूटती है जिनसे टूटने कि उम्मीद नहीं होती। आज जब भी कभी वह नीम का पेड़ मुझे याद आता है मुझे बचपन का समय याद आ जाता है। मेरे आँगन का वह आँचल जो मुझे हमेशा अपने अन्दर समेटे रहता था आज वह उजड़ गया है और उस आँचल की कमी मुझे आज भी महसूस होती है।

Tuesday, January 6, 2009

डाक बाबू कहाँ हो

१०-१२ साल की उम्र के मुझे आज भी वे दिन याद हैं जब मैं अपनी नानी के घर जाया करता था। नानी के घर के सामने वाले घर की महिला जब मुझे बुलाकर सऊदी अरब में नौकरी करने वाले अपने पति के लिए चिट्ठियां लिखवाया करती थी। मैं बहुत खुश होकर उसकी चिट्ठी लिखा करता था। यही नहीं जब कभी मेरे घर की गली में डाकिया आता था तो उसे देखकर मन खुशी से उछल जाता था कि शायद उसके पास हमारे लिए भी कोई चिट्ठी हो! और फिल्मों में भी डाकिया जब किसी कि चिट्ठी पढ़कर सुनाता था तो उसके आस-पास लगी भीड़ को देखकर मन रोमांचित हो उठता था। सुख-दुःख का संदेश लेकर आने वाले डाकिया को लोग एक अतिथि का दर्जा देते थे। लेकिन वह अतिथि आज कहाँ है?

तेजी से बढ़ रही सूचना क्रांति ने आज डाकिया के रास्तों को कम कर दिया है। मोबाइल फोन, ई-मेल आदि ने आज चिट्ठियों के अस्तित्व को लगभग समाप्त कर दिया है। आज अधिकतर चिट्ठियां या कूरियर केवल नौकरियों से सम्बंधित दस्तावेज या पार्सल ही आते हैं। लेकिन उनको लाने वाले जिन्हें हम डाकिया या कूरियर कम्पनी का कर्मचारी कहते हैं के प्रति वो अतिथि सत्कार नहीं रहा है। सूचना क्रांति ने डाकिया और आम आदमी के बीच वो दूरी बढ़ा दी है जिसकी कम होने की उम्मीदें असंभव सी लग रहीं हैं। लेकिन सच यही है कि पल भर में पहुँचने वाले संदेश आज लेट-लतीफ़ चिट्ठियों पर भारी पड़ रहें है। पुरानी फिल्मों में सुनाई पड़ने वाले गाने जैसे चिट्ठी आई है, वतन से चिट्ठी आई है....., डाकिया डाक लाया.... आदि आज कि फिल्मों से गायब हो चुके हैं। या कहें कि मर चुके हैं। यही नहीं पैरों में चप्पल, कंधे पर थैला, सर पर टोपी और हाथ में साईकिल लेकर चलने वाला डाकिया आज समाज से भी लगभग गायब है। आज कि युवा पीढ़ी सूचना के इस प्रवाह में तेजी से बह रही है। पल भर में संदेश भेजना और प्राप्त करना उसकी आदत बन गई है वह संदेशों का इन्तजार नहीं करती।

भाग-दौड़ भारी इस जिन्दगी में संदेशों ने भी रफ़्तार पकड़ ली है जो कि जिन्दगी कि रफ़्तार से दो कदम आगे चल रहें हैं। लेकिन अंग्रेजी में एक कहावत है,"नो लोंगर नाओ, गोन आर दी डेस।" और यह कहावत ठीक ही है। हो सकता है कि आगे चलकर आने वाली पीढ़ी को शायद डाकिया के बारे में पता ही ना रहे। डाकिया के थैले से लगातार कम हो रहीं चिट्ठियां कहने को विवश करती हैं,"डाकिया बाबू कहाँ हो?" आज भी आँखें गढ़ाए मैं उसी बड़े-बड़े चश्मे वाले डाकिया का इन्तजार करता हूँ। यह इन्तजार है कि लगातार बढ़ता ही जाता है और शायद ये इन्तजार अब इन्तजार ही रहे। मैं अपने अन्दर से उस डाकिया की छवि नहीं भूल सकता। और आज भी कभी-कभी अचानक उसे याद कर लेता हूँ।