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'यार हम लेट हो न हो जाएं।' अपने माथे से पसीना पौछ्ते हुए मेरी दोस्त ने मुझसे कहा। बात 2008 की उस समय की है जब मैं भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), नई दिल्ली में पढ़ता था। मेरी वह दोस्त दिल्ली यूनिवर्सिटी (साऊथ कैम्पस) से एमए कर रही थी। उसे थिएटर का भी शौक है। हम लोग नोर्थ कैम्पस जा रहे थे। 'भैया ऑटो थोड़ा तेज चलाओ न।' उसने झल्लाते हुए ऑटो चालक से कहा। उससे मेरा हाथ खींचा और मेरी कलाई पर बंधी घड़ी में समय देखा।
दिल्ली में उस समय वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी। या यह कहूं कि अभी भी है। उस समय उसके कॉलेज में एक नाटक का मंचन होना था। उसकी तैयारी के लिए वो मुझे अपने साथ नोर्थ कैम्पस ले जा रही थी। धौला कुआं से हमें फैकल्टी ऑफ़ आर्ट (नोर्थ कैम्पस) पहुंचने में करीब डेढ़ घंटा लगा। 'भैया कितने पैसे हुए?' उसने ऑटो चालक से पूछा। '65 रुपए', ऑटो वाले ने मीटर देखकर कहा। उसने ऑटो वाले को पैसे दिए और मेरा हाथ पकड़कर कॉलेज में ले गई।
'हाय सीमा, यार तूने आने में कितनी देर कर दी। जरा घड़ी की तरफ देख दो बज गए हैं। और तुझे पता है न कि सर्दियों में दो बजे शाम जैसा समय हो जाता है। हम तेरा यहां पर कितनी देर से इंतजार कर रहे हैं।' वहां इंतजार कर रही उसकी एक दोस्त ने उस पर थोडा गुस्सा करते हुए कहा। हां, सीमा नाम है उसका। 'सॉरी यार, थोड़ा लेट हो गई। अच्छा देखो मेरे साथ कौन आया है?' फिर क्या था, निकल गया करीब आधा घंटा एक-दूसरे के परिचय में। उसके दोस्तों के साथ उसके नाटक की रिहर्सल शुरू हुई। हिन्दू-मुस्लिम एकता पर आधारित था उसका वह नाटक। मुझे काफी पसंद आया। शाम को करीब सात बजे रिहर्सल ख़त्म हुई। 'चलें सीमा?' मैंने उससे घर चलने के लिए कहा। 'नहीं, अभी कोई नहीं जाएगा। थोड़ी भूख लगी है, कुछ खाते हैं।' उसकी एक दोस्त ने वहां पर मौजूद सभी दोस्तों से कहा।
थोड़ी सी पेट-पूजा करने के बाद हम दोनों घर की और निकल लिए। दरअसल मेरा घर उसके घर के रास्ते में ही पड़ता था। हम दोनों मेट्रो स्टेशन पहुंचे। केन्द्रीय सचिवालय का टोकन लेकर मेट्रो का इंतजार करने लगे। कुछ देर बाद मेट्रो आई और हम दोनों उसमें बैठ गए। इस समय करीब आठ बजे का समय था। ट्रेन में उसकी चुलबुली बातें शुरू हो गईं। कुछ देर बार हम केन्द्रीय सचिवालय पहुंच गए। वहां से हम दोनों को रूट नंबर 680 की बस पकड़नी थी। 'राजेश, भूख लगी है। कुछ खाते हैं', बस स्टैंड पर बस का इंतजार करते हुए उसने कहा। वहां पर हमने दो-दो समौसे खाए। कुछ देर बाद हमारी बस आ गई और हम बस में बैठकर घर के लिए चल दिए।
भोपाल में नौकरी के दौरान पिछले साल नवम्बर में किसी काम से मैं दिल्ली अपने घर गया था। उसे बताया नहीं। जब मैं लौटकर आया तो सुबह-सुबह उसका फ़ोन आ गया। मैंने बातों-बातों में उसे बता दिया कि मैं घर से आज सुबह ही आया हूं। फिर क्या था, बरस पड़ी मेरे ऊपर। जमकर गुस्सा हुई कि मैंने उसे नहीं बताया। आज उससे अलग हुए एक साल से ज्यादा हो गया है। लेकिन उसे जब भी कोई ख़ुशी होती है, उसे वो मुझसे ज़रूर शेयर करती है। इसी साल उसका जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी में पीएचडी में नंबर आ गया है और साथ ही उसे एक अख़बार में नौकरी भी मिल गई है। जब उसने मुझे फोन पर बताया तब वह बहुत खुश थी। मुझे भी उतनी ही ख़ुशी थी कि मेरी एक दोस्त अपने मकसद में कामयाब हो गई।
मुझे आज भी उसकी वो चुलबुली बातें याद आती हैं। आज भी जब वो मुझे फोन करती है, तो ऐसा लगता है कि वो मेरे सामने है। आज भी वो ऐसी ही चुलबुली है, जैसी पहले थी।
1 comment:
thank u rajesh....... aaj bhi tumhe sub kitney achey sey yaad hai....
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