या तो वह उदास थी, या उसे कोई परेशान कर रहा था। उसके माथे की शिकन मुझे इस बात का आभास करा रही थी कि वो बैचेन है। कभी अपने हाथ की उंगलियों को मरोड़ती तो कभी अपनी नज़रों से इधर-उधर देखती। अपनी नज़रें चुराकर मैंने कई बार उसकी ओर देखा। कई बार उससे नज़रें मिलीं। वह मुझे गुस्से में दिखी। कुछ देर बाद मेरे पास आई और मुझे छूकर बहुत तेजी से निकल गई। मैं उसे पकड़ पता उससे पहले ही उसकी मां वहां आ गई थी।
'तुम यहां क्या कर रही हो?' उसकी मां ने डांट लगाते हुए उससे कहा। वह सिर्फ मुस्कुराई। कुछ नहीं बोली और अपनी मां के आंचल से लिपट गई। मैं टकटकी लगाए यह सब देख रहा था। न जाने क्या हुआ था उसे। उसने मेरी ओर एक नज़र देखा और अजीब सा मुंह बनाया। हाथों से कुछ इशारा भी किया, लेकिन मैं समझ नहीं पाया।
'भाईसाहब आपकी चाय', चाय वाले ने चाय का गिलास मेरी ओर करते हुए कहा। मैंने चाय की एक चुस्की ली। वो अभी भी मेरी ओर देख रही थी। मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे कि मानों वो मुझसे कुछ कहना चाहती हो।
'भाईसाहब, लगता है आपको बाज़ार से शकर सस्ती मिलती है?', मैंने उसकी ओर से अपनी नज़रें हटाते हुए चाय वाले से कहा।
'नहीं साहब, ऐसा नहीं है। क्या हुआ। तुम ऐसा क्यों पूछ रहे हो?', चाय वाले ने मुझसे पूछा।
'आपकी चाय इतनी मीठी जो है,' मैंने उसे हंसते हुए जवाब दिया।
वह अभी भी अपनी मां के साथ थी। मेरी चाय भी ख़त्म होने वाली थी। तभी उसकी मां उसे लेकर मेरे पास आई और बोली,'बाबूजी...'
उस लड़की की नज़रें अब बड़ी मासूमियत से मेरी ओर देख रही थीं। मैंने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाले और उसे दे दिए। मैं वापस अपने कमरे पर आ चुका था। रास्ते में सोचता रहा कि वह चार-पांच साल की लड़की जिसके बाल बिखरे हुए और तन कर नाममात्र कपड़े, अपनी मां से कितना प्यार करती है। यह जानते हुए भी कि उसका जीवन दूसरों पर निर्भर है। इतना प्यार हम दूसरों से करें, तो अपने साथ दूसरों का भी जीवन बदल सकते हैं।
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