मध्यप्रदेश और खासतौर से इंदौर की बात हो और उसमें पोहा-जलेबी शामिल न हो, ऐसा नहीं हो सकता। यदि आप विदेश या अपने राज्य से बाहर जाते हैं, तो आपको अपने शहर के खाने की कमी बहुत महसूस होती है। आखिर जीभ चटोरी जो ठहरी। सितंबर 2009 की बात है। पहली बार जॉब के लिए मध्यप्रदेश आना हुआ। भोपाल स्थित हबीबगंज रेलवे स्टेशन पर सुबहकरीब 7 बजे ट्रेन राजा भोज की नगरी में आ चुकी थी। हम तीन लोग थे।एक मैं और दो मेरे दोस्त, जो दिल्ली से ही मेरे साथ आए थे। स्टेशन से बाहर निकलकर ऑटो पकड़ा और हम चूना भट्टी स्थित कंपनी के गेस्ट हाउस पहुंच गए। अगले दिन ऑफिस का पहला दिन था। मेरे साथ दिल्ली से आए दोस्तों के साथ मैं ऑफिस पहुंचा। रास्ते में कई जगह रेस्टोरेंट्स, ठेलों और चाय आदि की दुकान पर पिचके हुए पीले चावल जैसी चीज को लोगों द्वारा बड़े चाव से खाते देखा। मन में विचार आया। आखिर ये पीली-पीली चीज क्या है? इससे पहले मैंने कभी उसे खाना तो दूर, देखातक नहीं था।
खैर, ऑफिस आया। दोपहर के समय ऑफिस से बाहर घूमने निकला। चूँकि वह मेरा ऑफिस का पहला दिन था, आसपास की चीजों को देखने की उत्सुकता हुई। अभी तक भोपाल या ऑफिस के किसी भी व्यक्ति से मेरी दोस्ती नहीं हो पाई थी। मैं अपने दिल्ली वाले दोस्तों के साथ ऑफिस के बाहर स्थित छोले-भटूरे, छोले-कुलचे, आलू नान आदि बेचने वालों को तलाश कर रहा था। लेकिन मुझे वहां स्थित लगभग हर शॉप पर वही पीले-पीले पिचके हुए चावल दिखाई दे रहे थे। हम लोग कुछ देर घूमने के बाद वापस ऑफिस आ गए और वहां की कैंटीन में बैठकर पेट में कूद रहे चूहों को शांत किया।
भोपाल में एक दिन गुजरने के बाद भी हम इस पीली-पीली चीज के नाम का रहस्य नहीं सुलझा पाए थे। मैं तो क्या, मेरे दोस्त भी इस उलझन में थे की इसका नाम क्या है। अगले दिन मेरी थोड़ी सी दोस्ती ऑफिस में ही काम करने वाले एक व्यक्ति से हो गई। मैंने बातों-बातों में उस व्यक्ति से पूछ लिया कि इस पीली-पीली चीज का नाम क्या है? उसने इसका सही नाम बताया था, लेकिन मेरी समझ में आया ‘पोखा’। कुछ देर के लिए में चक्कर में पड़ गया कि कैसा नाम है इसका! मैंने अपने साथी दोस्तों को बताया कि जिस पीली-पीली चीज को हम कई दिनों से देख रहे हैं, उसका नाम पोखा है।
नया प्रदेश, नया शहर और खाने की कोई नई चीज। मन में इच्छा हुई कि चलो, पोखा खाकर देखते हैं। शाम का समय था। मैं अपने एक दोस्त के साथ ऑफिस से बाहर निकलकर आया। ऑफिस के सामने स्थित एक ठेले पर हम उस पीली-पीली चीज को खाने के लिए पहुंच गए। मैंने वहां पहुंचते ही ठेले वाले से कहा, ‘भाई ये पोखा खिलाना।’ पोखा नाम सुनते ही उसके माथे पर एक शिकन सी आ गई थी। मैंने ध्यान नहीं दिया। करीब दो मिनट बाद मैंने उससे फिर कहा, ‘भाई, पोखा देने में कितना समय लगेगा?’ मेरे इतना कहते ही ठेले वाले ने मुझसे पूछा, ‘क्या आप किसी अन्य शहर से हैं?’ ‘हां’, मैंने आश्चर्य जताते हुए कहा। यह सुनकर ठेले वाले के चेहरे पर मुस्कान आ गई। मेरी कुछ समझ में नहीं आया। उसने एक प्लेट निकली और उसमें वही पीले-पीले पिचके हुए चावल डाले और उसमें प्याज, हरी मिर्च, कई तरह की नमकीन आदि मिलाते हुए हमें दिए। जब वह हमें प्लेट दे रहा था। उसने अपना हाथ कुछ देर के लिए रोका और बोला, ‘भाईसाहब, इसे पोखा नहीं पोहा कहते हैं।’ आज इंदौर में करीब दो-ढाई साल बिताने के बाद वही पोखा...सॉरी...पोहा मेरी फेवरेट डिशेज में से एक हो गया है।
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