बचपन, एक ऐसा समय होता है जिसमें हम अपनी सभी चिंताओं को भूलकर एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जिसमें सिर्फ मौज- मस्ती होती है। और उसी मौज-मस्ती में कुछ ऐसी प्राकृतिक चीजें होती हैं जिन्हें हम उम्र भर नहीं भूलते। मेरे बचपन में भी ऐसी ही एक प्राकृतिक चीज थी जिसे मैंने युवा अवस्था में कदम रखते ही खो दिया। वह था मेरे आँगन में लगा नीम का पेड़। वह नीम का पेड़ जिसके नीचे मैंने अपने बचपन के खट्टे-मीठे अनुभव लिए। उस पेड़ की पत्तियों को लहराते देख जहाँ मैंने हँसना सीखा वहीं उस पेड़ को अपना एक अच्छा दोस्त भी बनाया।
गर्मियों में मुझे अपनी छाँव देने वाला वह पेड़ सर्दियों में भी धूप के लिए अपनी बांहों रूपी टहनियों को खोल दिया करता था। कभी लंगड़ डालना तो कभी उसकी निबोलियों से खेलना। लेकिन वह पेड़ कभी नाराज नहीं होता था। माना कि पतझड़ के मौसम में उसके पत्तों से मम्मी कभी-कभी नाराज हो जाया करती थीं। लेकिन बसंत ऋतु के बाद के उस नए नवेले पेड़ को देख ऐसा लगता था कि मानों यह पेड़ फिर से एक नई पारी के लिए तैयार है। मुझे याद है जब मैं उस पेड़ कि नई कपोलों को यह सोचकर खाता थी कि इससे मेरा खून शुद्ध हो जाएगा। लेकिन उन कपोलों को खाने के बाद जो मेरे मुंह का जो हाल होता था उसे मैं आज तक महसूस करता हूँ।
बारह साल पहले उस पेड़ से मेरी दोस्ती हमेशा के लिए टूट गई। कारण जो भी रहा हो लेकिन आज वो नीम का पेड़ मेरे साथ नहीं है। सालों की वो दोस्ती इक पल में टूट जायेगी ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। लेकिन कहते हैं न कि उम्मीद भी उन्हीं से टूटती है जिनसे टूटने कि उम्मीद नहीं होती। आज जब भी कभी वह नीम का पेड़ मुझे याद आता है मुझे बचपन का समय याद आ जाता है। मेरे आँगन का वह आँचल जो मुझे हमेशा अपने अन्दर समेटे रहता था आज वह उजड़ गया है और उस आँचल की कमी मुझे आज भी महसूस होती है।
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