Wednesday, May 20, 2009

बहकी पत्रकारिता की डगर

पत्रकारिता को लोकतंत्र को चौथा स्तम्भ कहा जाता है। इसका अर्थ है कि यदि यह स्तम्भ हिला तो लोकतंत्र को नुकसान । लेकिन जहाँ तक मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई की है, हमें बताया गया था कि पत्रकार को किसी भी दिशा में बिना झुके अपना सिर उठाए रखना चाहिए। लेकिन १५ वीं लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद मीडिया में जिस तरह की पत्रकारिता की गई और उनमें जैसी खबरें दीं गईं, उन्हें देखकर और पढ़कर मन से सिर्फ़ तीन शब्द निकले। हाय री पत्रकारिता!

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में तो मैं ज्यादा नहीं कहूँगा, लेकिन प्रिंट मीडिया की ख़बरों को पढ़कर मुझे लगा कि शायद मेरी पत्रकारिता की पढ़ाई व्यर्थ चली गई। इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोकसभा चुनाव के बाद किसी ना किसी पार्टी की सरकार बननी ही थी। लेकिन चुनाव के परिणाम के बाद पत्रकारिता किसी एक पार्टी की तरफ़ बह जाएगी ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि मैं किसी ख़ास पार्टी से ताल्लुख रखता हूँ। हर मतदाता की तरह मैं भी अपने मत का प्रयोग करता हूँ, लेकिन जब पत्रकारिता की बात होती है तो मैं सभी राजनीतिक पार्टियों को ताक पर रखता हूँ।

इस बार लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद प्रिंट मीडिया कांग्रेस की तरफ़ झुकती नजर आ रही है । और ऐसा लग रहा है कि मानों पत्रकारिता अब कांग्रेस की कलम से चलेगी। मैं यहाँ पर स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं कांग्रेस का विरोधी नहीं हूँ। बात यहाँ पर पत्रकारिता की हो रही है। नई दिल्ली से ही प्रकाशित होने वाले एक अखबार ने कांग्रेस के एक नेता के नाम आगे अब 'श्री' लगना शुरू कर दिया है। इस पर जब आज सुबह इस अख़बार को पढ़ते हुए मेरी नज़र पड़ी तो मैं अचंभित हो गया। मैं इस अख़बार को पिछले आठ महीने से पढ़ रहा हूँ और यह अख़बार उसी दौरान दिल्ली से प्रकाशित होना शुरु हुआ था। इससे पहले कभी भी इस अख़बार ने 'श्री' शब्द का प्रयोग नहीं किया था। लेकिन लगता है कि इस प्रसिद्ध अख़बार ने भी पत्रकारिता की सीमा को लाँघ दिया है।

मैं आपको ऐसे अनेक अख़बारों का उदाहरण दे सकता हूँ जिसमें आने वाली नई सरकार के गुण गाने शुरू कर दिए हैं। इसमें कोई दोराय नहीं है कि इस बार कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया है, लेकिन यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। यदि कुछ पहली बार हुआ है तो वह है पत्रकारिता में बदलाव। एक ऐसा बदलाव जिसे देखकर लगता है कि अब पत्रकारिता की परिभाषा बदलनी अब समय आ गया है। अब पत्रकारिता की ऐसी परिभाषा का इज़ाद की जाए जिसमें चापलूसी, घूसखोरी आदि शब्द शामिल हों। हो सकता है कि किसी को मेरी ये बातें बुरी लग रहीं हों, तो मैं उसके लिए माफ़ी चाहता हूँ। लेकिन हम सत्य को छिपा नहीं सकते। और यह ही सत्य है। एक निष्पक्ष पत्रकारिता इस बार चुनाव के दौरान तो देखने को मिली, लेकिन चुनाव के परिणामों के बाद किसी एक पक्ष में पत्रकारिता का झुकना मुझे आहत कर रहा है।

1 comment:

गजेन्द्र सिंह भाटी said...

Wah re lalla.

Bahaki dagar tori patrakarita ki.

Hamari to nahi bahaki.

Hum to naukri karate hain dost, Patrakarita tum karo.

Kar to rahe ho naa.