
३० दिसंबर की रात को मैं रोजाना की तरह अपनी डेस्क पर बैठा ख़बरों को एडिट कर रहा था। कुछ देर के लिए मैंने लेटेस्ट ख़बर पढ़ने के लिए एक वेबसाइट खोली और उस पर ख़बरें पढ़ने लगा। अचानक मेरी नज़र एक ऐसी ख़बर पर पड़ी, जिसमें रिपोर्टिंग के दौरान विभिन्न क्षेत्रों में मारे गए पत्रकारों के बारे में लिखा हुआ था। कनाडा में पत्रकारों के संगठन कैनेडियन जर्नलिस्ट फॉर फ्री एक्सप्रेशन ने ३० दिसंबर को एक बयान जारी किया, जिसमें उसने बताया कि २००९ में पूरी दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में रिपोर्टिंग के दौरान सौ पत्रकार मारे गए, जबकि २००८ में ८७ पत्रकार मारे गए थे। ख़बर में दिया गया था कि २००९ में पूरे साल के दौरान नवंबर में ३१ पत्रकार फिलीपींस में हमलावरों द्वारा मारे गए।
कनाडाई जर्नलिस्ट ग्रुप के अध्यक्ष अनरेल्ड अंबर ने कहा कि जब भी किसी पत्रकार की हत्या का मामला सामने आता है तो उसके पीछे जो वजह निकलकर आती है वह यह होती है कि उन सभी पत्रकारों की जान केवल इसलिए गई क्योंकि वे किसी भ्रष्ट अधिकारी अथवा राजनीतिज्ञ के खिलाफ कोई अन्वेषणात्मक रिपोर्ट तैयार करने में लगे हुए थे, लेकिन फिलीपींस वाले मामले में सभी पत्रकार उस समय मारे गए जब वे एक संवाददाता सम्मेलन में बैठे हुए थे।
उन्होंने आगे कहा कि किसी भी देश में ऐसा मामला बहुत कम ही सामने आता है कि जब किसी हत्यारे को पत्रकार की हत्या करने के लिए जेल की सजा सुनाई जाती हो। साथ ही उम्मीद भी जताई कि इस वर्ष यानी २०१० में मारे जाने वाले पत्रकारों की संख्या कम रहेगी। अब सवाल यहाँ पर यह उठता है कि आखिर उन्होंने यह क्यों नहीं कहा कि अब आगे पत्रकार मारे न जाएं, इसके लिए पूरे विश्व को ज़रूरी कदम उठाने पड़ेंगे। लगता है कि श्री अंबर को इस बात का पूरा यकीन है कि पत्रकार तो मारे ही जाएंगे।
यहाँ पर एक बात सोचने वाली है कि अपनी जान जोखिम में डालकर लोगों के लिए ख़बरें देने वाले पत्रकारों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। एक पत्रकार के लिए जब बात युद्ध स्थल पर जाकर रिपोर्टिंग करने की होती है तो उस वक्त पत्रकार और सैनिक में कोई फर्क नहीं रह जाता। क्या पता कब और कहाँ से कोई गोली वहां पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार के सीने को पार करके निकल जाए। ऐसा अक्सर होता भी रहता है। लेकिन उस देश की सरकार चाहें वह भारत ही क्यों न हो, ऐसी कोई घोषणा क्यों नहीं करती जिससे कि युद्ध स्थल पार मारे गए पत्रकार के परिजनों को सांत्वना दे सके और उसके परिवार को दर-दर की ठोकरें न खानी पड़ें।
पत्रकार को समाज का आईना भी कहा जाता है। अब समय आ गया है कि इस आईने की देखभाल करने के लिए हर देश की सरकार को आगे आना होगा और उसे अहसास करना होगा कि हम आपके साथ हैं। साथ ही अन्य देशों की सरकारों से भी आग्रह करना होगा कि किसी भी देश के पत्रकार जब किसी भी देश में रिपोर्टिंग करने जाएं तो उन्हें समुचित व्यवस्थाएं उपलब्ध कराई जाएं।