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Wednesday, January 20, 2010

...तो क्या मरते रहेंगे पत्रकार?


३० दिसंबर की रात को मैं रोजाना की तरह अपनी डेस्क पर बैठा ख़बरों को एडिट कर रहा था। कुछ देर के लिए मैंने लेटेस्ट ख़बर पढ़ने के लिए एक वेबसाइट खोली और उस पर ख़बरें पढ़ने लगा। अचानक मेरी नज़र एक ऐसी ख़बर पर पड़ी, जिसमें रिपोर्टिंग के दौरान विभिन्न क्षेत्रों में मारे गए पत्रकारों के बारे में लिखा हुआ था। कनाडा में पत्रकारों के संगठन कैनेडियन जर्नलिस्ट फॉर फ्री एक्सप्रेशन ने ३० दिसंबर को एक बयान जारी किया, जिसमें उसने बताया कि २००९ में पूरी दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में रिपोर्टिंग के दौरान सौ पत्रकार मारे गए, जबकि २००८ में ८७ पत्रकार मारे गए थे। ख़बर में दिया गया था कि २००९ में पूरे साल के दौरान नवंबर में ३१ पत्रकार फिलीपींस में हमलावरों द्वारा मारे गए।

कनाडाई जर्नलिस्ट ग्रुप के अध्यक्ष अनरेल्ड अंबर ने कहा कि जब भी किसी पत्रकार की हत्या का मामला सामने आता है तो उसके पीछे जो वजह निकलकर आती है वह यह होती है कि उन सभी पत्रकारों की जान केवल इसलिए गई क्योंकि वे किसी भ्रष्ट अधिकारी अथवा राजनीतिज्ञ के खिलाफ कोई अन्वेषणात्मक रिपोर्ट तैयार करने में लगे हुए थे, लेकिन फिलीपींस वाले मामले में सभी पत्रकार उस समय मारे गए जब वे एक संवाददाता सम्मेलन में बैठे हुए थे।

उन्होंने आगे कहा कि किसी भी देश में ऐसा मामला बहुत कम ही सामने आता है कि जब किसी हत्यारे को पत्रकार की हत्या करने के लिए जेल की सजा सुनाई जाती हो। साथ ही उम्मीद भी जताई कि इस वर्ष यानी २०१० में मारे जाने वाले पत्रकारों की संख्या कम रहेगी। अब सवाल यहाँ पर यह उठता है कि आखिर उन्होंने यह क्यों नहीं कहा कि अब आगे पत्रकार मारे न जाएं, इसके लिए पूरे विश्व को ज़रूरी कदम उठाने पड़ेंगे। लगता है कि श्री अंबर को इस बात का पूरा यकीन है कि पत्रकार तो मारे ही जाएंगे।

यहाँ पर एक बात सोचने वाली है कि अपनी जान जोखिम में डालकर लोगों के लिए ख़बरें देने वाले पत्रकारों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। एक पत्रकार के लिए जब बात युद्ध स्थल पर जाकर रिपोर्टिंग करने की होती है तो उस वक्त पत्रकार और सैनिक में कोई फर्क नहीं रह जाता। क्या पता कब और कहाँ से कोई गोली वहां पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार के सीने को पार करके निकल जाए। ऐसा अक्सर होता भी रहता है। लेकिन उस देश की सरकार चाहें वह भारत ही क्यों न हो, ऐसी कोई घोषणा क्यों नहीं करती जिससे कि युद्ध स्थल पार मारे गए पत्रकार के परिजनों को सांत्वना दे सके और उसके परिवार को दर-दर की ठोकरें न खानी पड़ें।

पत्रकार को समाज का आईना भी कहा जाता है। अब समय आ गया है कि इस आईने की देखभाल करने के लिए हर देश की सरकार को आगे आना होगा और उसे अहसास करना होगा कि हम आपके साथ हैं। साथ ही अन्य देशों की सरकारों से भी आग्रह करना होगा कि किसी भी देश के पत्रकार जब किसी भी देश में रिपोर्टिंग करने जाएं तो उन्हें समुचित व्यवस्थाएं उपलब्ध कराई जाएं।

Wednesday, May 20, 2009

बहकी पत्रकारिता की डगर

पत्रकारिता को लोकतंत्र को चौथा स्तम्भ कहा जाता है। इसका अर्थ है कि यदि यह स्तम्भ हिला तो लोकतंत्र को नुकसान । लेकिन जहाँ तक मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई की है, हमें बताया गया था कि पत्रकार को किसी भी दिशा में बिना झुके अपना सिर उठाए रखना चाहिए। लेकिन १५ वीं लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद मीडिया में जिस तरह की पत्रकारिता की गई और उनमें जैसी खबरें दीं गईं, उन्हें देखकर और पढ़कर मन से सिर्फ़ तीन शब्द निकले। हाय री पत्रकारिता!

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में तो मैं ज्यादा नहीं कहूँगा, लेकिन प्रिंट मीडिया की ख़बरों को पढ़कर मुझे लगा कि शायद मेरी पत्रकारिता की पढ़ाई व्यर्थ चली गई। इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोकसभा चुनाव के बाद किसी ना किसी पार्टी की सरकार बननी ही थी। लेकिन चुनाव के परिणाम के बाद पत्रकारिता किसी एक पार्टी की तरफ़ बह जाएगी ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि मैं किसी ख़ास पार्टी से ताल्लुख रखता हूँ। हर मतदाता की तरह मैं भी अपने मत का प्रयोग करता हूँ, लेकिन जब पत्रकारिता की बात होती है तो मैं सभी राजनीतिक पार्टियों को ताक पर रखता हूँ।

इस बार लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद प्रिंट मीडिया कांग्रेस की तरफ़ झुकती नजर आ रही है । और ऐसा लग रहा है कि मानों पत्रकारिता अब कांग्रेस की कलम से चलेगी। मैं यहाँ पर स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं कांग्रेस का विरोधी नहीं हूँ। बात यहाँ पर पत्रकारिता की हो रही है। नई दिल्ली से ही प्रकाशित होने वाले एक अखबार ने कांग्रेस के एक नेता के नाम आगे अब 'श्री' लगना शुरू कर दिया है। इस पर जब आज सुबह इस अख़बार को पढ़ते हुए मेरी नज़र पड़ी तो मैं अचंभित हो गया। मैं इस अख़बार को पिछले आठ महीने से पढ़ रहा हूँ और यह अख़बार उसी दौरान दिल्ली से प्रकाशित होना शुरु हुआ था। इससे पहले कभी भी इस अख़बार ने 'श्री' शब्द का प्रयोग नहीं किया था। लेकिन लगता है कि इस प्रसिद्ध अख़बार ने भी पत्रकारिता की सीमा को लाँघ दिया है।

मैं आपको ऐसे अनेक अख़बारों का उदाहरण दे सकता हूँ जिसमें आने वाली नई सरकार के गुण गाने शुरू कर दिए हैं। इसमें कोई दोराय नहीं है कि इस बार कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया है, लेकिन यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। यदि कुछ पहली बार हुआ है तो वह है पत्रकारिता में बदलाव। एक ऐसा बदलाव जिसे देखकर लगता है कि अब पत्रकारिता की परिभाषा बदलनी अब समय आ गया है। अब पत्रकारिता की ऐसी परिभाषा का इज़ाद की जाए जिसमें चापलूसी, घूसखोरी आदि शब्द शामिल हों। हो सकता है कि किसी को मेरी ये बातें बुरी लग रहीं हों, तो मैं उसके लिए माफ़ी चाहता हूँ। लेकिन हम सत्य को छिपा नहीं सकते। और यह ही सत्य है। एक निष्पक्ष पत्रकारिता इस बार चुनाव के दौरान तो देखने को मिली, लेकिन चुनाव के परिणामों के बाद किसी एक पक्ष में पत्रकारिता का झुकना मुझे आहत कर रहा है।