भोपाल में हुई विश्व की सबसे भीषण त्रासदी के 26 साल बाद आए फैसले ने न्याय और तत्कालीन सरकार दोनों को कटघरे में खड़ा कर दिया है। इस त्रासदी में मुख्य भूमिका निभाने वाले यूनियन कार्बाइड कंपनी के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन को अमेरिका भेजने को लेकर केंद्र सरकार की आलोचना भी की जा रही है। 1984 में 2-3 दिसंबर की रात इस फैक्ट्री से जहरीली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट के रिसाव से हजारों लोगों की मौत के जिम्मेदारों को 26 साल बाद निचली अदालत से सजा मिली। लेकिन जिस प्रकार से आठ आरोपियों को सजा मिली उसे देखकर लगता है कि उस रात गैस से मरे और प्रभावित हुए लाखों लोगों के साथ यह एक मज़ाक है। मात्र दो साल की कैद और प्रत्येक पर एक लाख एक हज़ार 750 रुपए का जुर्माना। फैसले के तुरंत बाद 25 हज़ार के मुचलके पर आरोपियों को जमानत मिलना। साथ ही मुख्य आरोपी एंडरसन और गैर हाज़िर चल रही दो कंपनियां कार्बाइड कॉर्पोरेशन और कार्बाइड इस्टर्न इंडिया (हांगकांग) का फैसले में उल्लेख न होना।
अब जब फैसला हो गया है तो सभी राजनैतिक दल अपनी-अपनी सफाई देने में लगे हैं। मुख्य आरोपी एंडरसन को भारत से अमेरिका भगाने में जहां मध्य-प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह चारों ओर से घिरे दिखाई दे रहे हैं, वहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री की भी एंडरसन को भगाने में अहम भूमिका बताई जा रही है। केंद्र सरकार ने इस कांड की परिस्थितियों की समीक्षा करने के लिए गृहमंत्री पी चिदंबरम की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय मंत्रियों का समूह बनाकर ज़िम्मेदारी की इतिश्री कर ली है।
इस त्रादसी में आरोपियों पर लगीं विभिन्न धाराओं में गैर जमानती धारा 304 भी थी, जिसे दबाव में आकर 304(a) में बदल दिया। यह दबाव किसका था? ज़ाहिर है उस समय सत्ता में बैठे लोगों का। लेकिन इसी क्या मज़बूरी थी कि धारा को बदलना पड़ा? क्या सिर्फ इसलिए कि यदि यह केस धारा 304 में चलता तो आरोपियों को अधिक सजा होती और इसके बाद विदेशी कंपनियां भारत में आने से कतरातीं? हो सकता है कि इसमें सच्चाई हो, लेकिन विदेशी कंपनियों को भारत में लाने का क्या यही अर्थ हुआ कि किसी विदेशी कंपनी की स्थापना के बदले अपने देश के लोगों की ज़िंदगी से सौदा किया जाए?
सात जून को जब इस त्रासदी पर फैसला आया तो फैसले से नाखुश होते हुए कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने बेशक कहा हो कि कानून दफ़न हो गया है, लेकिन यहां सोचने वाली बात है कि क्या कानून पहली बार दफ़न हुआ है? कानून मंत्री को क्या यह नहीं पता कि आज भी अपने देश में इतने केस हैं कि उनमें से काफी केसों के फैसले आने तक या तो मुजरिम की मौत हो जाती है या न्याय की आस में बैठे लोगों की। क्या वे इस बात को भूल गए हैं कि एक नाबालिग लड़की से छेड़छाड़ के मामले में हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौड़ को 19 साल बाद सजा मिली वह भी मात्र छह महीने और एक हज़ार रूपए के जुर्माने की। यही नहीं, एक घंटे के अंदर उसे जमानत मिल गई और फैसले के खिलाफ़ हाईकोर्ट में अपील करने का महीने भर का समय। जिस प्रकार से वह फैसले वाले दिन कोर्ट से हंसता हुआ बहार निकला, लगा मानो कानून का मखौल उड़ा रहा हो।
भोपाल गैस त्रादसी और छेड़छाड़ के अकेले ऐसे केस नहीं हैं जिन पर कोर्ट से आए फैसले से लोगों को कोई ख़ुशी हुई हो। हमें याद करना चाहिए 2006 में नोएडा में हुए निठारी हत्याकांड को। जिस प्रकार से कोठी नंबर डी-5 के पीछे नाले में से बच्चों के कंकाल बरामद हुए थे, उसे देखकर लगता था कि इसके गुनहगार जल्द ही सूली पर होंगे। लेकिन इसका फैसला आने में भी करीब चार साल लगे। ऐसा ही कुछ इस समय 2001 में संसद पर हुए हमले के आरोपी अफज़ल गुरु को लेकर हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसकी फांसी की सजा को बरकरार रखा है, लेकिन उसकी क्षमा याचना की सुनवाई की फाइल पर अभी भी सरकारी अडचनें आ रही हैं। दिल्ली सरकार को 16 बार याद दिलाने के बावज़ूद भी फाइल आगे नहीं बढ़ी थी। वो तो भला हो दिल्ली के एक पत्रकार का जिन्होंने सूचना के अधिकार का प्रयोग करते हुए गृह मंत्रालय से अफज़ल मामले की अपडेट मांगी। मीडिया में काफी हो-हल्ला होने के बाद तब कहीं जाकर दिल्ली सरकार की नींद टूटी और फाइल ने कुछ गति पकड़ी।
वैसे भी सरकारी ढर्रे के चलते अफज़ल के दिन मजे में कट रहे होंगे, क्योंकि जब उसकी याचिका पर सुनवाई होगी तब तक काफी समय निकल चुका होगा। हमें इस बात का भी आश्चर्य नहीं होगा कि 26/11 के गुनहगार अजमल कसब की फांसी के लिए भी कुछ और महीनें या कहें कि कुछ और साल इंतजार करना पड़े। यह बात जग जाहिर है कि आतंकवादियों या गुनहगारों को सजा देने के लिए एक तो अपने देश में वैसे ही काफी समय लगता है, दूसरे यदि उन्हें किसी तरह कोर्ट से सजा मिल भी जाए तो उसे अंजाम तक पहुंचने में सालों लगते हैं। अधिकतर केसों में अपने वोट बैंक को बचाने के लिए सरकार कानून और फैसले के बीच में आ खड़ी होती है।
कहते हैं कि सांप के निकल जाने के बाद लकीर को पीटने से कुछ नहीं होता। ऐसा ही कुछ अब इन मामलों को लेकर हो रहा है। भोपाल गैस त्रासदी के बारे में कांग्रेस ने अपनी छवि पाक-साफ़ रखने के लिए इस मामले में चुप्पी साध रखी है। वहीं अर्जुन सिंह पर हो रही आरोपों की बरसात की एक भी छींट वो खुद पर लेने से बच रही है। बहरहाल जो भी हो, लेकिन इतना तय है कि न्याय की आस लगाए बैठे लोगों को अभी भी न्याय से महरूम होना पड़ रहा है। कभी न्याय के आड़े सरकार आती है तो कभी धन-बल। यही नहीं सत्ता में बैठे नेता भी अपनी ताकत के बल पर या तो केस को कमज़ोर बनवा देते हैं या फिर उसे ख़त्म करवा देते हैं। आखिर हम न्याय की उम्मीद किससे और कैसे लगाए? अब समय आ गया है न्यायिक प्रक्रिया को और दुरुस्त कर उसमें से लालफीताशाही का हस्तक्षेप निकल दिया जाए, जिससे लोगों को सही और जल्दी न्याय मिल सके।
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