Tuesday, February 8, 2011

मोहे भी रंग दियो बासंती रंग ने

आज मेरा मन चंचल है। इधर-उधर घूम रही हूं। कभी पेड़ों से टकराती तो कभी फूलों को छूकर निकल जाती। आप लोगों को भी मैं खुद के शरारती होने का अहसास कर रही हूं। क्या करूं...आज मेरा मन चंचल जो है। इस बासंती रंग ने अपने रंग में मुझे भी रंग दिया है। मेरे अन्दर भी प्रेम-भाव की भावना उमंग ले रही है। आज मेरा खुद पर बस नहीं है। ऐसा है इस बसंत का रंग। मैं हवा हूं। कोई राह नहीं। बस चले जा रही हूं। रमे जा रही हूं। इस बासंती रंग में।

पेड़ों पर बौर इस दुनिया में आ चुके हैं। शाखाओं से चिपके हुए। इन्हें इंतजार है खुद के जवान होने का। मैं इन्हें झूला झुला रही हूं। आज प्रकृति भी नए वस्त्रों से सजी हुई है। नई दुल्हन की तरह दिखाई दे रही है। बासंती रंग का खुमार प्रकृति पर भी चढ़ा हुआ है। बच्चे भी खुश दिखाई दे रहे हैं। खेल रहे हैं। कूद रहे है। पतंग उड़ा रहे हैं। मैं इनके कानों में मधुर स्वर घोल रही हूं। ये मेरे होने का अहसास कर रहे हैं। मैं देख रही हूं कि भौंरे फूलों को छेड़ रहे हैं। इनमें भी प्यार की लहरे हिलोरें ले रही हैं। मैं देख रही हूं कि गेहूं की फसल पर सोने की परत ने चढ़ना शुरू कर दिया है। किसान के चेहरे पर हंसी और जानवरों की मस्ती पर भी बासंती रंग चढ़ गया है।

इन सबके बावजूद मुझे कुछ दुःख है। मुझे दुःख है इस बात का कि पूरी मानव प्रजाति खुश नहीं है। इस बसंत ऋतु में काफी लोगों के चेहरे पर मुझे ख़ुशी दिखाई नहीं दे रही है। ये लोग प्रेम-भाव से दूर हैं। मैं देख रही हूं कि कुछ लोग आपस में लड़ रहे हैं। एक दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं। ना जाने क्यों...??? वह प्यार जो कभी एक-दूसरे पर उमड़ता था, कहीं खो गया है। कहीं खो गई हैं वो नज़रें जिनसे कभी मानव एक-दूसरे को देखा करता था। वो नज़रें जिनमें खुशियों भरी चमक होती थी। खो गई हैं गावों की वो चौपालें जिन पर कभी लोगों की हंसी सुनाई देती थी। हुक्कों की गडगडाहट सुनाई देती थी। अब तो गावों की चौपाल से चारपाई भी गायब होने लगी है।

इस प्यार भरे मौसम में मुझे लोगों के बीच प्यार कम या ये कहूं कि दिखाई ही नहीं दे रहा है। और मैं हूं कि इस बासंती रंग में पागल हो रही हूं। लोग इस मौसम का सिर्फ मजा ले रहे हैं। समझ नहीं रहे। वे नहीं समझ रहे कि हम एक-दूसरे की बीच की दूरियों को मिटा दें। हम मिटा दें वो फासले जिन्होंने एक दीवार का रूप ले लिया है। वे दीवारें जिन्होंने लोगों के बीच प्यार को कम कर दिया है। वह प्यार जो हमारे देश की एकता और अखंडता को एक डोर में बांधे रखता है। मुझे दुःख होता है यह देखकर कि आज मानव मानवता को भूलता जा रहा है।

मुझे एक कटती हुई पतंग दिखाई दे रही है। इधर-उधर उड़ रही है। मुझे इसे सहारा देने की ज़रुरत है। आखिर यह कटी पतंग कब तक मेरी बाहों में रहेगी। कटने के बाद इसे आना तो ज़मीन पर ही होगा। काश! यह कटी न होती...काश! यह डोर से बंधी हुई होती...इसी कटी पतंग की तरह एक दिन मानव भी ज़मीन पर आ गिरेगा। यदि इसे बुलंद रहना है तो प्यार के डोर में बंधे रहने होगा। मेरा क्या है...मैं आज इधर तो कल उधर...बासंती मौसम भी कुछ समय बाद चला जाएगा। यह चला जाएगा एक संदेश देकर। वह संदेश को प्यार भरा है...उमंग भरा है...शरारत भरा है...

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